पापा आज फिर आप मेरे लिये उड़ने वाला फाइटर प्लेन नहीं लाये नन्हे रोहित ने ठुनकते हुए कहा तो छोटी मुनिया कैसे पीछे रहती वह भी पापा के पैरों से लिपट कर गुड़िया ना लाने लिए उलाहना देने लगी। शशांक ने बेबसी से अपनी पत्नी की ओर देखा। अपने नन्हे बच्चों की छोटी छोटी ख्वाहिशे पूरी न कर पाने का दर्द उसकी आँखों में झलक आया था। शोमा क्या कहती समझती तो वह भी थी शशांक का दर्द उसकी मजबूरी। अचानक नौकरी छूट जाने की वजह से जीवन की गाड़ी पटरी से उत्तर गयी थी लेकिन नन्हे बच्चों को कैसे समझाया जाये ?शशांक सारा दिन दफ्तरों की खाक छानता शाम को जब उदास सा घर लौटता बच्चों की मासूम इच्छाए पूरी न कर पाने का दर्द नौकरी न मिलने के दर्द से मिल कर कई गुना हो जाता।
शशांक ने मुंह हाथ धोने के बहाने अपना दर्द धोने की कोशिश की और पत्नी से रोहित और मुनिया को तैयार करने को कहा।
"लेकिन कहाँ ले जाओगे उन्हें ?और अभी इतना खर्च कहाँ से करोगे पता नहीं अभी और कितने दिन …। "कहते कहते शोमा ने बात अधूरी छोड़ दी।
ये हमारे जिंदगी के संघर्ष हैं लेकिन बच्चों को खुश रखने की जिम्मेदारी मेरी है पिता हूँ मैं उनका। उन्हें खुशियां देना मेरा फ़र्ज़ है और खुशियां पैसों से नहीं खरीदी जाती। तुम उन्हें तैयार तो करो।
दोनों बच्चों का हाथ थामे शशांक घर से निकल गया।
बच्चों को दूर तक घुमा कर ढेर सारी बतकही करके जब वे वापस लौटे रोहित चहक रहा था ;पापा अब से हम रोज़ शाम को ऐसे ही घूमने चलेंगे।
पापा के साथ बिताया समय रोहित और मुनिया की आँखों में संतुष्टि बन कर चमक रहा था तो बच्चों को खुश करने की ख़ुशी उनके अभाव के साथ शशांक की आँखों में मोती बन कर झिलमिला रही थी।
शशांक ने मुंह हाथ धोने के बहाने अपना दर्द धोने की कोशिश की और पत्नी से रोहित और मुनिया को तैयार करने को कहा।
"लेकिन कहाँ ले जाओगे उन्हें ?और अभी इतना खर्च कहाँ से करोगे पता नहीं अभी और कितने दिन …। "कहते कहते शोमा ने बात अधूरी छोड़ दी।
ये हमारे जिंदगी के संघर्ष हैं लेकिन बच्चों को खुश रखने की जिम्मेदारी मेरी है पिता हूँ मैं उनका। उन्हें खुशियां देना मेरा फ़र्ज़ है और खुशियां पैसों से नहीं खरीदी जाती। तुम उन्हें तैयार तो करो।
दोनों बच्चों का हाथ थामे शशांक घर से निकल गया।
बच्चों को दूर तक घुमा कर ढेर सारी बतकही करके जब वे वापस लौटे रोहित चहक रहा था ;पापा अब से हम रोज़ शाम को ऐसे ही घूमने चलेंगे।
पापा के साथ बिताया समय रोहित और मुनिया की आँखों में संतुष्टि बन कर चमक रहा था तो बच्चों को खुश करने की ख़ुशी उनके अभाव के साथ शशांक की आँखों में मोती बन कर झिलमिला रही थी।
सुंदर !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (15-06-2014) को "बरस जाओ अब बादल राजा" (चर्चा मंच-1644) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
सुन्दर लेख.......धन्यवाद!
ReplyDeleteइसे कहते हैं क्वालिटी टाइम...अमूमन हम बच्चों को गिफ्ट-चॉकलेट से खुश करना चाहते हैं...जब की उनकी खुशियां बहुत छोटी-छोटी होतीं हैं...गिफ्ट से ज़्यादा तो वो पैकिंग के डिब्बे से खेल डालते हैं...
ReplyDeleteबहुत बढिया..
ReplyDeleteखुशियों को खरीदना नही पडता। बहुत सुंदर लघुकथा।
ReplyDeleteBahut achchhi aur prabhavshali...
ReplyDeleteबेवशी में भी हिम्मत रख बच्चों की ख़ुशी का कोई न कोई विकल्प निकल जाता है जरुरी तो नहीं कि कुछ खरीद कर ही वे उपलब्ध हो बालमन को कैसे भी समझाया जा सकता है
ReplyDeleteप्यार और समय को पैसा कहाँ खरीद सकता है?
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