खैर झारसुगुड़ा से हम पहले रेलवे स्टेशन पहुँचे लेकिन सम्भलपुर के लिए कोई ट्रेन अगले दो घंटे तक नहीं थी इसलिए वहाँ से बस स्टैण्ड गए। वहाँ हर आधे घंटे में सम्भलपुर के लिए बस मिलती है तो जो बस सामने दिखी उसी में बैठ गए। गाँवों कस्बों में चलने वाली गंतव्य तक पहुँचा देने वाली बस। रुकते रुकाते सवारियाँ चढ़ाते उतारते डेढ़ घंटे में उसने हमें सम्भलपुर में उतार दिया। यहाँ ऑटो वालों ने हमें घेर लिया। जैसे किसी विदेशी फ़िल्म में किसी भारतीय का चेहरा देखते ही हम चिंहुक जाते हैं वैसे ही ये ऑटो वाले पर्यटकों को देखते ही। मज़े की बात तो ये थी कि तब तक हमें मंदिर का नाम भी नहीं पता था ,सिर्फ इतना पता था कि यह मंदिर तिरछा बना है। सम्भलपुर से पैंतीस किलोमीटर दूर जाने आने का किराया बारह सौ से शुरू होकर आठ सौ तक आया,लेकिन सत्तर किलोमीटर ऑटो में सफ़र सोच कर ही ठीक नहीं लगा। फिर तलाश शुरू की बस की ,पता चला हर आधे घंटे में उसी चौराहे से बस मिलती हैं। एक ट्रेफिक हवलदार ने मंदिर का नाम बताया साथ ही बताया की धमा की बस में बैठ जाएँ। इतनी देर में बस आ गयी। टिकिट के पैसे देते हुए कण्डक्टर से कहा हुमा टेम्पल जाना है कहाँ उतरना होगा बता दे।
बस से एक तिराहे पर उतरे वहाँ कुछ होटल थे लेकिन बंद थे आसपास कोई व्यक्ति ना था तभी मोटर बाइक पर दो तीन लड़के आते दिखे उनसे रास्ता पूछ कर किसी साधन के बारे में पूछा तो पता चला वहाँ जाने का कोई साधन नहीं मिलता मंदिर करीब तीन किलोमीटर था। खड़े रह कर समय बर्बाद करने से कोई फायदा था नहीं और जब इतनी दूर आ ही गए थे तो मंदिर के दर्शन किये बिना जाने का मन भी न था इसलिए बस बढ़े चले। दूर दूर तक फ़ैले सूखे खेत सामने सुनसान सड़क जिस पर कभी कभार ही कोई गाड़ी गुज़रती थी लोग मुड़ कर देखते हुए निकल जाते। करीब दो किलोमीटर चलने के बाद एक टवेरा आती दिखी तो उसे हाथ दे दिया बगल से निकली तो पता चला कि किसी की पर्सनल गाड़ी है लेकिन आश्चर्य थोड़ा आगे जा कर वह रुक गयी। दो लोगों के लिए उसमे जगह नहीं थी लेकिन उन्होंने कहा थोडा एडजस्ट कर सकते है तो बैठ जाइये एक किलोमीटर की ही तो बात है।
संक्रांति का दिन होने से मंदिर के बाहर पूजन सामग्री की कई दुकाने सजी थीं लोग निज वाहन से आये थे। मंदिर का गुम्बद काफी झुका हुआ था। मंदिर के अंदर का द्वार भी तिरछा था। उसी प्रांगण में दो और मंदिर थे वे भी झुके हुए थे। मंदिर के निर्माण और झुके होने के बारे में कोई शिलालेख वहाँ नहीं था। गूगल देवी ने बताया मंदिर का निर्माण सम्भलपुर के पाँचवे बालियर सिंघ ने करवाया था। नदी के पीछे एक नदी बहती है जिसमे बड़ी बड़ी कुड़ो मछलियाँ तैरती हैं जिन्हे लोग आटे की मीठी गोलियां खिलाते हैं। नदी में बोटिंग भी होती है।
वापसी में फिर पदयात्रा शुरू की तिराहे से ऑटो फिर बस किसी तरह वापस पहुँचे एक अनोखे मंदिर की यात्रा कर मन संतुष्ट था।
कविता वर्मा
यह यात्रा कथा लिखती रहें ......अच्छा लगा पढ़कर
ReplyDeleteयात्रा वृतांत अच्छा लगा ....फेसबुक पर भी सभी फ़ोटोज़ देखी थी
ReplyDeleteaapki yatra vritant padhke man kiya hum bhi ghum aayen...pic se jagah bhi sundar lag rahi hai,mandir bhi purani lag rahi hai,phir yatayat ki koi wyawastha nahi....bahut achhe..
ReplyDeleteघुमक्कड़ जिज्ञासा जहाँ न ले जाये...यात्रा का अनप्लान्ड पार्ट वाकई रोचक होता है...
ReplyDeleteबहुत रोचक यात्रा वृतांत...
ReplyDeleteबहुत सुंदर यात्रा वृतांत ...!
ReplyDeleteRECENT POST -: आप इतना यहाँ पर न इतराइये.
रोचक यात्रा वृत्तांत.
ReplyDeleteनई पोस्ट : पलाश के फूल
सुन्दर यात्रा विवरण..
ReplyDeletehttp://mauryareena.blogspot.in/
:-)
bahut hi sunder raha yatra vritant :)
ReplyDeleteपोस्ट की गई तस्वीरों के माध्यम से यात्रा-वृतांत सुंदर बन पडा है.
ReplyDeleteअच्छा लगा आपका यात्रा विवरण .. रोचक .. कुछ और चित्र डालने थे तो और मज़ा आता ...
ReplyDelete..बहुत सुन्दर....
ReplyDeleteBehad rochak yatra vritant....mam......pichhle sal hi puri ki yatra ki afsos kisi ne jikra nahi kiya....
ReplyDeleteBehad rochak yatra vritant....mam......pichhle sal hi puri ki yatra ki afsos kisi ne jikra nahi kiya....
ReplyDeleteअच्छा वृतांत.. कभी मौका मिला तो जरूर देखेंगे।
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