Thursday, December 3, 2009

क्यूँ छीना मेरा चीर

मेरे पिता ने बड़े नाजों से पला मुझे ,सदा सजा संवार कर रखा ,मुझे हरी नीली ओढ़नी पहराई
उस पर अनगिनत रंगबिरंगे फूल सजाये ।मेरी चोटी में बर्फ से सफ़ेद फूलोंकी माला गुथी । में बहुत खुश थी इठलाती फिरती थी लहरों के साथ उछलती रहती थी दिन रत अपनी नीली ओधनी को हवा में उड़ाते हुए ।वैसे तो कई दोस्त थे मेरे पर वो बड़े शांत थे मैं चाहती थी एक ऐसा दोस्त जो मुझसे बात करे ।मेरे पिता भला मेरी इच्छा कैसे टालते ।मुझे एक दोस्त मिला भी मैंने उसे अपना समझा खूब खुश थी मैं . उसे मेरी हरी ओढ़नी में लगे फूल अच्छे लगे मैंने उसे दिए ,मेरी ओढनी से भी कई टुकडे उसे दिए ,पर उसके लालच का तो जैसे कोई अंत ही न ही था ,वो और -और मांगता रहा मैं देती रही ।आज मेरा असीमित चीर टुकडे -टुकडे हो कर बमुश्किल मेरा तन ढक पा रहा है ।उसका नीला रंग मटमैला हो गया है , और तो और मेरे बालों में गुथी सफ़ेद फूलों की वेणी भी मसल कुचल दी गयी है ।हाँ अब मेरा तन ढकने के लिए उसने मुझ पर लाल , हरेपीले कुछ टुकडे जरूर फ़ेंक दिए हैं जिन्होंने मेरी बची -खुची सुन्दरता को भी हर लिया है ।अब मेरा ये दुखवा मैं कासे कहूँ ?  
Categories: Blog

3 comments:

  1. very poetic..somewhat mysterious...

    ReplyDelete
  2. बेहद खूबसूरत, प्रवाहपूर्ण भी ! नीलिमा जी ने सच कहा - रहस्यावरण भी हैं कुछ !

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणियाँ हमारा उत्साह बढाती है।
सार्थक टिप्पणियों का सदा स्वागत रहेगा॥

अपने सारथी हम खुद

  अपने सारथी हम खुद  अगले दिन सुबह उठे तो कहीं जाने की हड़बड़ी नहीं थी। आज हमें उन्हीं जगह पर जाना था जहाँ अपनी गाड़ी से जाया जा सकता था। कि...