Monday, November 3, 2025

पर्वतों की रानी सतपुड़ा

 पचमढ़ी मध्यप्रदेश का एकमात्र हिल  स्टेशन है जो सतपुड़ा पर्वत पर स्थित है। यहीं सतपुड़ा की सबसे ऊँची चोटी है और भवानी प्रसाद मिश्र की प्रसिद्ध कविता 'सतपुड़ा के घने जंगल ऊँघते अनमने जंगल' को शब्दशः देखने महसूस करने का उत्तम स्थान। यहाँ जाने के लिए एकमात्र सड़क मार्ग है जहाँ बस टैक्सी या अगर बेहतरीन ड्राइवर हैं तो स्वयं की गाड़ी से जाया जा सकता है। 

हमने इंदौर से सुबह आठ बजे यात्रा शुरू की ताकि शाम होने तक पचमढ़ी पहुँच जाएं। रास्ता बढ़िया है मटकुली के बाद पहाड़ी रास्ता शुरू हो जाता है। शाम साढ़े चार बजे पहुँचे थोड़ी देर में अंधेरा हो जाता इसलिए बस आराम किया। 

पचमढ़ी में कुछ स्थानों पर अब सिर्फ़ सफारी जिप्सी से जाया जा सकता है जिसमें छह लोग जा सकते हैं। हमने शेयरिंग के लिए होटल में बोल दिया और एक कपल का साथ मिल गया। 

अगले दिन सुबह बादल उतर आये थे फिर हल्की बारिश होने लगी। खुली धूप में कैसे जाएंगे? लेकिन नाश्ता करने तक बारिश रुक गई हल्की धूप निकल आई। शेयरिंग जिप्सी में हम चार लोग निकले सबसे पहले पाण्डव गुफाएं देखने। एक पहाड़ी के अलग अलग स्तर पर बनी छोटी बड़ी पाँच गुफाएँ। वहाँ तक जाने के लिए पुरानी पत्थर की अनगढ़ सीढियाँ। धूप हो गई थी एक बार लगा इतनी सीढ़ियाँ नहीं चढ़ पाएंगे लेकिन ये क्या चढ़ गये। इन गुफाओं का पाण्डवों से कोई लेना देना नहीं है बस न जाने कैसे नाम पड़ गया। हाँ ये काफी पुरानी हैं और आश्चर्य चकित करती हैं। इसके सामने बेहद खूबसूरत गार्डन है जो ऊपर से देखने पर बहुत सुन्दर लगता है। 

पाण्डव गुफाओं के बाद अगला पड़ाव था बायसन लाॅज जो अब एक म्यूजियम में बदल चुका है। ब्रिटिश काल की यह इमारत अपने रंग रूप और परिसर के कारण बेहद आकर्षक है। यहाँ पचमढ़ी के दर्शनीय स्थल यहाँ के जनजातीय और वन्य जीवन आदि के कुछ चित्र कुछ मूर्ति आदि हैं। बढ़िया बात यह है कि यहाँ कोई टिकट नहीं है लेकिन यहाँ से बी फाल जाने के लिए परमिट बनवाना पड़ता है। हम तो चले गए म्यूजियम देखने और हमारे ड्राइवर लग गये लाइन में। हम घूमफिर कर वापस आ गये लेकिन वे लाइन में ही खड़े थे। हमने थोड़ा समय इधर-उधर काटा कुछ फोटो लीं।

पिछले आठ दस वर्षों में पर्यटन में बहुत बदलाव आया है अब वह उद्योग है। उद्योग है तो उसके कई नियम कायदे हैं । पचमढ़ी में अब हर दर्शनीय स्थल पर प्रायवेट गाड़ियाँ नहीं जा सकतीं। सिर्फ उन स्थलों पर जो आसान राह पर हैं वहीं आप अपनी गाड़ियों से जा सकते हैं। अन्य स्थानों पर फोर व्हील ड्राइव वाली जिप्सी ही चलती हैं चलाने वाले स्थानीय लोग ही होते हैं। इन गाड़ियों के मालिक वही लोग हैं लेकिन ये वन विभाग से अटैच्ड हैं और जरूरत के अनुसार वहाँ से बुकिंग के आधार पर भेजी जाती हैं। इनका किराया डिमांड सप्लाई के आधार पर हर दिन तय होता है जो तीन से पाँच हजार के बीच होता है। इन गाड़ियों में कौन जा रहा है उनकी जानकारी भी ली जाती है। अगर कोई अपनी गाड़ी से किसी ऐसे स्थान पर जाता है तो उसे एंट्री पाइंट पर गाड़ी रोककर पैदल जाना होता है जो लगभग तीन-चार किमी दूर होता है। जाते हुए तो लोग खुशी से चले जाते हैं लेकिन लौटते उनकी हालत खराब हो जाती है। लेकिन कोई भी तय सवारी के अलावा किसी को नहीं बैठा सकता वर्ना दो हजार का जुर्माना और एक हफ्ते के लिए गाड़ी बाहर कर दी जाती है। 

सुनने में ये परेशान करने वाला लग सकता है लेकिन इसका असर वहाँ देखने को मिलता है। ये जिप्सी तय स्थान पर ही रुकती हैं बीच में कोई नहीं रुकता जिससे जंगल साफ रहता है उसमें लोगों का शोर नहीं भरता। जंगल वन्य जीव और पक्षी सुरक्षित रहते हैं।

हाँ यहाँ भी जिप्सी के हार्न थोड़ा परेशान करते हैं लेकिन बिलकुल अंधे मोड़ और खड़ी चढ़ाई पर ये जरूरी भी होते हैं।

बायसन लाॅज देखने के बाद अगला पड़ाव था बी फाॅल। बी यानी मधुमक्खी जी हाँ यहाँ मधुमक्खी बहुत ज्यादा हैं इसीलिए जंगल में आग जलाना बीड़ी सिगरेट पीना निषेध है लेकिन पीने वाले पीते हैं उनमें फारेस्ट गार्ड भी होते हैं।

जिप्सी ने हमें फाल से लगभग दो सौ मीटर दूर उतारा। वापस आने का समय डेढ़ घंटे बाद का तय हुआ। पथरीले रास्ते सीढ़ियों से हम पहुँचे ऊपर वाली पहाड़ी नदी पर जो आगे जाकर लगभग चार सौ फीट नीचे गिरती है। इस नदी में इस समय तेज बहाव था क्योंकि इस बार बारिश अभी हो ही रही है। वहाँ बहुत लोग नहा रहे थे कुछ पानी में पैर डाले बैठे थे। किनारे के व्यू पाइंट से झरने की आवाज भर सुनाई दे रही थी। मैं चूँकि दस ग्यारह वर्ष पहले स्कूल के बच्चों की ट्रिप में आई थी इसलिए बहुत सारी यादें ताजा हो गईं।

"नीचे चलना है" पूछा था या कहा था या दोनों बात थीं। जवाब में पतिदेव थोड़ा हिचकिचाए। चार सौ मीटर नीचे।

"चलो न धीरे-धीरे पहुँच ही जाएंगे। जब इतनी दूर आये हैं तो थोड़ा और सही।" जवाब का इंतजार नहीं किया मैंने। हालाँकि थोड़ी आशंका थी मन में। बायपास के बाद ऐसी चढ़ाई मुश्किल तो नहीं होगी। लेकिन मैं भी तो चढ़ी थी और बहुत लोग आ जा रहे हैं। बच्चे बड़े बूढ़े हम भी आ जाएंगे।

धीरे-धीरे उतरना शुरू किया। ये क्या पहले जो प्राकृतिक सीढ़ियाँ थीं पत्थरों की जमावट उनके स्थान पर अब लाल पत्थरों की पक्की सीढ़ियाँ हैं। उन पर गिरे पत्ते पानी में गल गये थे इसलिए फिसलन हो सकती थी। चूँकि सतपुड़ा के ये पहाड़ ज्वालामुखी के लावे से ढँक कर कड़े मजबूत हो चुके हैं इसलिए इनमें ज्यादा तोड़ फोड़ कर छेड़छाड़ नहीं की गई है। इसलिये सीढ़ियाँ कम ज्यादा ऊँची थीं।

उतरते हुए बहुत थकान नहीं हुई लेकिन पसीने ने परेशान किया। बस पंद्रह मिनट लगे हमे नीचे पहुँचने में जबकि सीढ़ियों के कारण रास्ता कुछ ज्यादा लंबा हो गया है। हाँ उमस बहुत ज्यादा थी क्योंकि पहाड़ काफी नजदीक थे आसपास घने पेड़ नमी। जब नीचे पहुँचे विशाल खूबसूरत प्रपात पानी की बारीक बूँदों को उड़ाकर न नहाने वालों को भी सराबोर कर रहा था।

नीचे गीले पत्थरों की उबड़ खाबड़ जमावट खतरनाक थी। जरा पैर फिसला और चोट लगना तय था। पानी के पास जाने में कोई समझदारी नहीं थी क्योंकि हमें नहाना नहीं था। न हम कपड़े लाये थे न विचार था। हमने कुछ फोटो लिये और वापस ऊपर जाने लगे। तय किया कि ऊपर पानी में पैर डालकर बैठेंगे। हमने समय देखा और चढना शुरू किया। जानना था ऊपर पहुँचने में कितना समय लगा।

अब मन में उत्सुकता थी कि ऊपर कितनी देर में चढ़ पाएंगे। रास्ते में बहुत भीड़ थी इसलिए तेज तो चला नहीं जा सकता था। उमस पसीना भी परेशान कर रहा था। हमारे पास पानी की बोतल थी लेकिन हम बहुत संभलकर एक एक घूँट पानी पी रहे थे। ज्यादा पानी पीने से पेट में वजन हो जाता है जिसे ऊपर चढ़ते उठाने में दिक्कत आती है। यह मैंने शिलांग में लाइव रूट ब्रिज पर चढ़ते हुए जाना। 

लगभग बीस मिनट में हम ऊपर थे। अब प्यास भी लगी थी और पसीना काफी निकल चुका था इसलिए थोड़ा नमक थोड़ी शक्कर लेना जरूरी था। हमने नींबू पानी पिया। अच्छी बात यह थी कि यहाँ डिस्पोजेबल ग्लास नहीं थे इसलिए कचरा नहीं था। आसपास मधुमक्खियाँ उड़ रही थीं।

हम लोग झरने वाली नदी के किनारे आ गये जूते उतार कर पानी में पैर डाला ही था कि पतिदेव ने एकदम झटके से पैर बाहर निकाला।

"मछलियाँ काट रही हैं।"

"अरे ऐसे कैसे?" मैंने भी पानी में पैर डाले और कुछ ही सेकेंड में पैरों में गुदगुदी सी होने लगी। तीन-चार छोटी छोटी मछलियाँ पैरों की चमड़ी खा रही थीं।

"अरे ये तो फिश पेडीक्योर है" बहुत पहले इसके बारे में पढ़ा था। "पैर पानी में करे रहो लोग इसके लिए हजारों रुपये देते हैं यहाँ फ्री में हो रहा है।"

पसीने से पैरों की त्वचा फूल गई थी और मछलियों की दावत हो रही थी। अहा कितना अच्छा लग रहा है। कभी-कभी छह सात मछलियाँ आ जातीं और हमें पैर झटककर बाहर निकालने पड़ते।

हम लगभग घंटे भर पेडीक्योर करवाते रहे। हमारा जाने का समय हो गया था पैर बाहर निकाले तो महसूस हुआ कि पैर कितने मुलायम और चिकने हो गये हैं। क्या सच में इतनी डेड स्किन होती है? पता नहीं लेकिन पैर सच में बहुत अच्छे हो गये।

हमने जूते पहने और पार्किंग तक गये। वहाँ बहुत सारे फारेस्ट गार्ड थे कुछ जिप्सी में साथ आये थे कुछ वहीं ड्यूटी पर थे। वहाँ तकरीबन दो सौ गाड़ियाँ थीं उनमें अपनी गाड़ी नंबर से पहचानना कठिन था लेकिन तभी हमारे ड्राइवर ने हमें देख लिया और हाथ हिलाकर आवाज लगाई।

हम तो पहुँच गये थे लेकिन हमारे सहयात्री अभी तक नहीं आये थे। अब फाॅल से लौटने वाले अपनी जिप्सी ढूँढकर उसमें बैठकर जाने लगे थे। कई लोग पैदल जा रहे थे उनकी गाड़ी गेट के बाहर करीब तीन किमी दूर खड़ी थी। वे बुरी तरह थके हुए थे कुछ गीले कपड़ों में थे। निश्चित ही उन्हें नहीं पता था कि यहाँ क्या मिलने वाला है वे बस आ गये थे और इतना सुंदर प्रपात निर्मल पानी देखकर खुद को रोक नहीं पाये। वे वहाँ से कोई सवारी देख रहे थे जो उन्हें गेट पर उनकी गाड़ी तक छोड़ दे लेकिन कोई इसके लिए तैयार नहीं था। ड्राइवर ने कहा इस समय ये दो हजार रुपये तक देने को तैयार हैं लेकिन दिन भर के लिए चार हजार देने में कंजूसी करते हैं। अब इस बात पर क्या ही कहा जाये। जो अपनी गाड़ी से आते हैं वे अलग से गाड़ी के लिए हजारों रुपये क्यों दें और उन्हें पता भी कहाँ होता है कि कैसी जगह है कितनी दूर पैदल चलना होगा कैसा रास्ता होगा कितनी चढ़ाई होगी। वे बस चले जा रहे थे।

ड्राइवर ने बताया वह पहले ट्रक चलाता था फिर बस चलाने लगा अभी सात आठ साल से अपनी गाड़ी ले ली। अब बच्चे कहते हैं यहीं रहो बाहर मत जाओ। उसके घर उसी दिन पोती का जन्म हुआ था और वह गाड़ी चला रहा था।

हम गाड़ी में बैठकर इंतजार कर रहे थे पर्यटक अभी भी आते जा रहे थे। पैदल जाने वालों को देखते मेरे मन में भी पैदल चलने की इच्छा होने लगी। आधा घंटा हो गया था इंतजार करते मुझे लगा अगर अभी पैदल चलना शुरू करूँगी दस पंद्रह मिनट में वे लोग आ ही जाएंगे। मैं भी आधा पौन किमी चल लूँगी। पतिदेव का मन नहीं था रास्ता बस एक था सिर्फ जंगल और इतनी गाड़ियों की आवाजाही के बीच भालू के आने की संभावना नहीं के बराबर थी।

मैं चल पड़ी बस एक मोबाइल लेकर जिसमें नेटवर्क नहीं था। करीब दो सौ मीटर तक सड़क के किनारे जिप्सी खड़ी थीं उसके बाद बस जंगल और मैं। अहा क्या अद्भुत क्षण थे हरे भरे घने पेड़ लाल मिट्टी कहीं किसी मोड़ पर मिल जाता बहता पानी। लगातार ऊपर चढ़ती इस सड़क पर धूप छाँव के बीच मैं चलती जा रही थी।

वैसे तो वहाँ किसी का कोई डर नहीं था लेकिन लगातार लोगों के बीच शहरी शोरगुल के बीच रहने के कारण यह शांति भली लगते हुए भी सहज नहीं होने दे रही थी। मैं पचमढ़ी और अब इस एकांतिक ट्रेकिंग पर इसी शांति और जंगल को महसूस करने ही तो आई थी लेकिन फिर क्यों बार बार पीछे मुड़कर देख रही थी? मन में ख्याल था कि गाड़ी तो नहीं आ रही है फिर ख्याल आता अभी न आये थोड़ा और चल लूँ।

शहरों में पैदल चलना छूट गया। इंदौर में सड़क किनारे घूमने में कभी सहजता महसूस नहीं होती। आसपास के पार्क में अब इतनी जगह ही नहीं है कि घूम सकें।

तभी चार पाँच लड़के दिखे। उनकी गाड़ी भी शायद गेट के बाहर होगी। वे बातें हँसी मजाक करते पैदल चलते हुए सड़क से उतर कर जंगल की पगडंडी से ऊपर की सड़क पर चले जाते। रोमांचक तो था लेकिन मैं जो कर रही थी वह भी अपने आप में काफी रोमांचक था। आडे टेढ़े रास्ते पर जाकर पैर मोचाने का रिस्क लेना ठीक नहीं है। फिर वे जवान लड़के हैं और मुझे अपनी उम्र पता है। हम आगे पीछे चलते रहे।

करीब डेढ़ दो किमी बाद वह खड़ा तीखा मोड़ आया और मुझे याद आया कि जब स्कूल के बच्चों के साथ आये थे तब हम यहाँ काफी देर रुके थे। वे लड़के एक मोड़ पीछे रुक गये थे मैं ऊपर थोड़ी देर रुकी कुछ फोटो लिये तब तक वे लोग भी आ गये।

अब तो काफी देर हो चुकी थी। थकान तो नहीं थी लेकिन पतिदेव जरूर चिंता कर रहे होंगे उनकी इस चिंता की चिंता मुझे होने लगी। पता नहीं साथ वाले आये या नहीं। पतिदेव बीच में फँस गये अब न गाड़ी छोड़कर पैदल आ सकते हैं न वहाँ रुक पा रहे होंगे ।अब तो एंट्री पाइंट भी आने वाला होगा। वे लड़के आगे निकल गये मैं थोड़ा धीरे धीरे चलती रही तभी पीछे से हार्न सुनाई दिया। पीछे मुड़कर देखा जिप्सी की गति धीमी हो गई थी।

अहा सारी चिंता दुश्चिंता विचारों से मुक्ति। मैं गाड़ी में बैठ गई। सहयात्री ने मुझे पानी दिया। हम आगे बढ़े। वे लड़के दिखाई दिये। मैंने उन्हें देखकर हाथ हिलाया जोर से कहा "थैंक्यू"

क्या पता आगे जाकर वे देखते कि मैं पीछे नहीं आ रही हूँ और सोचते कि कहीं कुछ हो तो नहीं गया? वैसे मैं उनकी जिम्मेदारी नहीं थी लेकिन मुझे पता था कि उन्हें पता है कि मैं अकेली जा रही थी इसलिए उन्हें ये बताना कि मैं गाड़ी में चली गई हूँ ठीक लगा।

ड्राइवर ने कहा "आप तो बहुत चल लीं।"

इससे अच्छा पुरस्कार इस हिम्मत के लिए और क्या होगा?


अगला पड़ाव था लंच के लिए किसी रेस्टोरेंट में जाना। जिप्सी ड्राइवर के पास दो तीन आप्शन होते हैं। यहाँ खाएंगे वेज है या

किस्मत से हमारे साथ वाले भी वेजिटेरियन थे हमने एक रेस्तरां को मना किया क्योंकि वहाँ वेज नानवेज दोनों थे लेकिन अगला शुद्ध शाकाहारी देखकर वहीं रुक गये। ड्राइवर से खाने का पूछा तो वह बोले मैं यहीं स्टाफ के साथ खा लूँगा। वैसे भी पर्यटकों को लाने वाले ड्राइवर गाइड के लिए खाना मुफ्त होता है खरीद पर चालीस प्रतिशत तक कमीशन होता है और सब कुछ जानते हुए भी दुनिया का कारोबार यूँ ही चलता रहता है। रेस्तरां में बहुत भीड़ थी। एक हाॅल में आर्डर कर के खा सकते थे दूसरी तरफ था बुफे। 300 /-प्लेट। हालाँकि कीमत ज्यादा थी लेकिन आगे और दो पाइंट देखने थे इसलिए इंतजार करने का समय नहीं था। सीजन की भीड़ में सारा ध्यान बस खिलाने पर था बहुत बेसिक सा सेट अप साफ-सफाई बस उतनी जितने में खा सकें। हाँ खाने का स्वाद अच्छा था बिलकुल घर के खाने जैसा। दो सब्जी कढी दाल चावल सलाद पापड़ रोटी नान तंदूरी और खीर। बाहर एक पान की दुकान भी थी चालीस रुपये का एक पान। पिछली रात खाने के बाद टहलने गये थे तब पान खाया था और ज्यादा चूने ने मुँह खराब कर दिया था इसलिए बोलकर कम चूने वाला पान बनवाया।

धूप तेज थी सुबह से काफी दौड़ धूप हो चुकी थी खाने के बाद अब बस पसर जाने का मन था लेकिन धूपगढ़ सिर्फ जिप्सी से जाया जा सकता था इसलिए होटल नहीं जा सकते थे। अब पेट भरा तो थकावट भी चढ़ी और आलस भी। खैर हम पहुँचे रीछगढ़ या रिचगढ़।

अच्छा मजेदार बात है कि 75 साल बाद भी इसका एक नाम तय नहीं हुआ है। किसी स्थानीय ने रीछ देखा था इस गुफा में इसलिये यह रीछगढ़ है और दो बड़ी चट्टानें आपस में मिलकर एक रिज बनाती हैं इसलिए रिच गढ़ है।

वहाँ ऐसी भीड़ थी जैसे मुफ्त में जलेबियाँ बँट रही हों। ऊबड खाबड़ पत्थरों के बीच से बोलते बतियाते चीखते चिल्लाते हँसी मजाक करते लोग अपनी क्षमता अनुसार रास्ता ढूंढ कर नीचे उतर रहे थे। वह विशाल गुफा शोर से भरी हुई थी। कोई बगल में एक छोटी अंधेरी गुफा में जा रहा था तो कोई नीचे उतर कर पीछे के परकोटे में।

उतरना आसान नहीं था एक बार मन हुआ छोड़ दें फिर मन को समझाया आये हैं तो देखें तो कितना बदलाव हुआ है।

अच्छा लगा देखकर कि यह जगह बिलकुल भी नहीं बदली थी। पीछे दो चट्टानें वैसे ही माथा जोड़े न जाने क्या बातें कर रही थीं। सदियाँ बीत गईं उनकी बातें खत्म नहीं हुईं और लगता है अगली कई सदियों तक होंगी भी नहीं। लोग आते रहेंगे उनका पहनावा बातें रंग ढंग बदलते रहेंगे उनकी उत्सुकता के केंद्र बदलते रहेंगे और उन दोनों चट्टानों के पास उनके बारे में बातें करने का विषय रहेगा।

हमने कुछ फोटो लिये। इन चट्टानों के पीछे एक रास्ता है जो घने जंगल के अंदर जाता है। चालीस साल पहले भी वह रास्ता था और दस साल पहले जब गई थी तब भी। उस पर चलने की ललक तब भी थी आज भी लेकिन आज के लिए अकेले जंगल में जाने का कोटा पूरा हो चुका था। नहीं भी होता तो वहाँ जाना संभव नहीं होता। पता नहीं पतिदेव रोकते या अज्ञात के लिए मेरा खुद का डर बच्चों के लिए प्यार लेकिन उस रास्ते पर शायद कभी नहीं जा पाऊँगी।

वहाँ से ऊपर जाने का रास्ता काफी ऊँचा दिख रहा था। उस में समय लगता हम वापस चल पड़े। आधे रास्ते में सहयात्री नीचे उतरते दिखे यह तय था उन्हें फिर देर लगेगी जबकि इस बार ड्राइवर ने उन्हें जल्दी आने को बोल दिया था।

बाहर चाय पकौड़े की दुकान पर जबरदस्त भीड़ थी जबकि हमारा खाना गले में रखा था। हम आगे बढ़े रास्ते में एक पत्थर सिंहासन सा आभास दे रहा था। वहाँ रुके फोटो लिए तब तक कुछ और लोग लाइन लगाकर खड़े हो गये उन्हें भी फोटो लेना था। हम आगे बढ़े फिर एक जगह बैठ गये जब अभी जाना ही नहीं है तो गाड़ी में क्यों बैठें यहीं जंगल में क्यों न बैठे?

अगला पड़ाव था धूपगढ। वहाँ जाना रोमांचित कर रहा था। वैसे तो मैं पहले भी चार बार धूपगढ जा चुकी थी लेकिन वहाँ जाने का पहला अनुभव आज भी रोमांचित करता है।

धूपगढ सतपुड़ा की सबसे ऊँची चोटी है जहाँ से सूर्यास्त देखना अद्भुत होता है और इतनी खतरनाक चढ़ाई लोग इसे देखने के लिए करते हैं। अब यहाँ प्रायवेट गाड़ियाँ बंद कर दी गई हैं लेकिन इक्कीस साल पहले जब हमने अपनी पहली गाड़ी मारूति वेन खरीदी थी और सबसे पहले पचमढ़ी घूमने गये थे उसकी यादें अब तक ताजा हैं ।

वह गैस कन्वर्टेड वेन थी जिसमें गैस सिलेंडर लगा था। पचमढ़ी आते हुए गाड़ी कहीं टकराई थी शायद लेकिन वह अच्छे से चल रही थी और हम पूरी पचमढ़ी घूम चुके थे। धूपगढ चढ़ते हुए जब खड़ी चढ़ाई पर गाड़ी आगे से ऊपर पीछे से नीचे हुई तो गैस की सप्लाई होना बंद हो गई। पतिदेव ने ब्रेक पर पूरी ताकत से पैर रखकर उसे पीछे लुढ़कने से रोका और बोले जल्दी नीचे उतरो और पहिये के पीछे पत्थर लगाओ। मैं नीचे उतरी और सड़क किनारे पड़ा पत्थर उठाकर लगाया फिर पतिदेव ने गाड़ी को रेस दी और दो तीन मीटर आगे बढ़ाया। वे फिर जोर से बोले फिर पत्थर लगाओ और मैंने दूसरा पत्थर उठाया दौड़ लगाई और फिर पत्थर लगाया। अब गाड़ी एक दो मीटर आगे बढ़ती मैं भागकर पत्थर लगाती खड़ी चढ़ाई पर भागते मैं हाँफने लगी।

पतिदेव ने गाड़ी को पेट्रोल पर किया लेकिन चूँकि गाड़ी गैस पर थी इसलिए बहुत थोड़ा सा पेट्रोल था जो टंकी में पीछे हो गया था और इंजन तक नहीं पहुँच पा रहा था। 

हमें थोड़ी देर हो गई थी इसलिए हमारे बाद नीचे से कोई गाड़ी नहीं आ रही थी बस यही अच्छा था। तभी मेरी नजर बगल में खाई पर पड़ी गहरी अंधेरी घाटी जिसका तल दिखाई नहीं दे रहा था। पतिदेव ने एक बार फिर कोशिश की और मुझसे कहा बैठो। मैं गाड़ी में बैठी गेट थोड़ा अटकाया न जाने कब फिर उतरना पडे। एक बार फिर भगवान का नाम लिया और मन में कहा 'भगवान जैसी आपकी मर्जी बस इतना करना कि बचें तो चारों मरे तो चारों। किसी को पीछे जीवन भर का दुख झेलने के लिए मत छोड़ना।'

इतनी देर में गाड़ी बमुश्किल बीस मीटर चली होगी। अब फिर गाड़ी को गैस पर करके पतिदेव ने गेयर लगाया और ये क्या गाड़ी दनदनाती हुई ऊपर चढ़ गई ऐसे जैसे उसमें कुछ हुआ ही नहीं था।

अब फिर उस रास्ते पर जाना उस दिन क्षण को साथ देखने का रोमांच था। सड़क बहुत अच्छी नहीं थी डामर रोड़ उखड़ी हुई थी और उसमें पैबल लगाने का काम चल रहा था जबकि पिछले चार बार यहाँ हमेशा डामर रोड़ ही थी।

ड्राइवर ने बताया कि यहाँ घने जंगल में नाग देवता का मंदिर है जहाँ हर नागपंचमी को मेला भरता है। करीब ढाई लाख लोग इस मेले में आते हैं। रास्ते में एक चट्टान दिखी जिस पर गणपति जी का आकार और झलक थी। इस चट्टान के नीचे देवता का मंदिर था और उसी के बगल से एक संकरा पैदल रास्ता। नागपंचमी पर धूपगढ जाने वाला रास्ता बंद कर दिया जाता है और यहाँ से लोग पैदल नाग मंदिर तक जाते हैं। दरअसल नाग देवता देश के ही नहीं दुनिया भर के आदिवासियों के देवता हैं और उनकी बहुत मान्यता है। दक्षिण अमेरिका में स्नैक किंगडम बहुत विशाल राज्य था।

ड्राइवर ने बताया कि जिस साल अच्छी बारिश होती है तभी मेला लगता है क्योंकि इतने लोगों के लिए पीने के पानी की व्यवस्था हो जाती है। जंगल में टेंकर ले जाना संभव नहीं है। फिर बारिश में सब गंदगी बह जाती है। हाँ बाजार और प्लास्टिक हर जगह पहुँच चुका है और जंगल के बीच से बारह किमी फिर सड़क से छह आठ किमी कचरा कौन ढोकर लायेगा। इसलिए कचरा नदियों के रास्ते फिर गाँव शहर में आ जाता है।

धूपगढ में पहाड़ के ऊपर काफी बड़ा समतल मैदान है जिसके एक ओर से सूर्योदय दिखता है दूसरी ओर से सूर्यास्त। वैसे आज कुछ नहीं दिखने वाला था क्योंकि बादल हो गये थे। हम पूर्व की ओर गये वहाँ से दूर चौरागढ दिखाई दे रहा था। वह सतपुड़ा की दूसरी सबसे ऊँची चोटी है। यहाँ विशाल शिव मंदिर है जहाँ त्रिशूल चढ़ाये जाते हैं। कहते हैं भस्मासुर को वरदान देने के बाद जब वह शिव को भस्म करने दौड़ा तब उससे बचने के लिए शिव इस पर्वत पर भी गये थे और उनका त्रिशूल वहाँ छूट गया था।

यहाँ से नीचे दूर दूर तक पहाड़ और घने जंगल दिख रहे थे। हम जहाँ खड़े थे वहीं बगल में एक और चट्टान थी जो लगभग पचास फीट ऊँची होगी।

हम पश्चिम की ओर जाने लगे यहाँ भी एक दुकान पर चाय पकौड़े बन रहे थे और लोगों की भीड़ लगी थी। पश्चिम में बैठने के लिए सीढ़ी बना दी हैं ताकि लोग बहुत किनारे न जाएँ और फोटो लेने के लिए धक्का मुक्की न हो। बादल घने हो गये थे अंधेरा छाने लगा था सूर्यास्त में अभी भी आधा घंटा था और लोग उम्मीद में बैठे थे कि शायद बादल छँट जाएं जिसकी कोई संभावना नहीं थी।

इस जगह पर आने की यादें फोटो लेकर संजोई जा रही थीं। हम लोगों को देखते रहे उनके उत्साह को जिसमें सूर्यास्त न दिखने का कोई मलाल नहीं था वह दिखे न दिखे होगा जरूर और अगले दिन सूर्य फिर उगेगा। यहाँ होना उनके लिए एक याद है उसे संजोना है।

हवा ठंडी हो चली थी उतरते हुए अंधेरा हो जायेगा। अब चलना चाहिए ताकि रास्ते के सौंदर्य को एक बार फिर रौशनी में निहार सकें। हमारे सहयात्री सामने ही दिख रहे थे उनसे कहा अब चलें वे भी तैयार हो गये।

रास्ते में एक दो फोटो खींचे ड्राइवर ने एक जगह गाड़ी रोककर छह सात पहाड़ों के पार वह स्थान दिखाया जहाँ मेला लगता है। गाड़ी लगातार चलती जा रही थी और हम सब गाड़ी में चुपचाप बैठे थे उस स्थान की सुंदरता को मन में बसाए दिमाग में उससे जुड़ी बातों को यादों के बक्से में जमाते हुए कुछ बहुत बहुमूल्य पीछे छोड़ आने की अकुलाहट लिये।












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पर्वतों की रानी सतपुड़ा

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