Thursday, June 19, 2025

जिंदगी इक सफर है सुहाना

 

खरगोन इंदौर के रास्ते में कुछ न कुछ ऐसा दिखता या होता ही है जो कभी मजेदार विचारणीय तो कभी हास्यापद होता है लेकिन एक ही ट्रिप में तीन चार ऐसी घटनाएँ कम ही होती हैं।
आजकल खरगोन या इंदौर से निकलते देर हो ही जाती है। तेज धूप में गाड़ी में चलता एसी भी कभी-कभी घुटन पैदा करता है। इस बार खरगोन से निकले सुबह के दस बजे अमूमन इस समय तक हम इंदौर पहुँच जाते हैं। जाम घाट पर चढ़ते समय तक तेज धूप गर्म हवा ने विंड शीट को भी गर्म कर दिया था जिसके कारण बार बार एसी को फ्रंट ब्लोअर पर करना पड़ रहा था ताकि काँच ठंडा हो और गाड़ी भी। ऐसी चिलचिलाती धूप में गाड़ी के सभी काँच पर काले फलके लगे रहते हैं और मैं तो अपनी तरफ इन्हें दोहरा करके लगा लेती हूँ। इतनी धूप में घाट के हरे भरे पेड़ भी आँखों को ठंडक नहीं दे पाते। हाँ उन्हें देखती जरूर रहती हूँ लेकिन बस सामने से।
तभी आगे एक बाइक पर एक परिवार जाता दिखा। पति पत्नी। पत्नी ने हवा में उड़ गया अपना साड़ी का सीधा पल्ला सिर पर रखा तब दिखा कि उसकी गोद में एक छोटा बच्चा है। अच्छा बच्चों को लोग सीधे बाहर की ओर मुँह करके बैठाते हैं। गर्मी में आधे कपड़े पहने वे मुँह हाथ पैर में हवा के थपेड़े सहते रहते हैं।
गाड़ी उन्हें ओवरटेक करके आगे बढ़ी तो देखा एक पाँच छह साल का बच्चा आगे भी बैठा था। मैंने ब्लैक शीट हटाकर देखा। नींद में ऊँघता सा गर्मी से बेहाल। हाय बेचारे मासूम बच्चे बता भी नहीं पाते कि उन्हें कोई तकलीफ है और माता-पिता समझते नहीं हैं कि उनके सिर पर रुमाल बाँध दें मुँह ढँक दें बीच में बैठा लें या उल्टी तरफ मुँह करके ही बैठा दें।
ओह बेचारा बच्चा!
"तुम्हारी जेब में रुमाल है क्या?" हमारे लेडीज रुमाल के प्रयोग बड़े सीमित होते हैं।
"हाँ क्यों पर एक ही है"
"ठीक है न तुम्हें कौन सा पसीना आना है एसी में बैठे हो। निकालो"
इतने वार्तालाप में गाड़ी लगातार चल रही थी और उनसे काफी आगे आ गई थी। अब गाड़ी धीमी की रुमाल खोलकर एसी वेंट के सामने कर फ्रेश किया और इंतजार करने लगे उस बाइक के आने का। हालाँकि ट्राफिक कम था लेकिन बीच घाट में रुकना ठीक नहीं था। रेयर मिरर में हम बाइक को आते देखते रहे।
अच्छा बाइक वालों को किसी भी तरफ से ओवरटेक करने की सुविधा हमारे देश में उपलब्ध है। उनके लिए दायां बांया कुछ नहीं होता बस जहाँ अगले टायर के समाने की जगह मिले वहाँ से निकल लो। इसलिये मैंने भी अपनी तरफ के फलके हटा दिये ऊँगली शीशा खोलने के लिए तैयार रखी थी वह पास आता जा रहा था और पास और पास।
किस तरफ से निकलेगा मेरी तरफ से दूसरी तरफ से और वह बगल से निकला। पतिदेव ने शीशा नीचे किया हाथ देकर उसे रोका रुमाल निकाल कर उसे दिया।
"ये बच्चे को बाँध दो बहुत गर्मी है।"
वे दोनों आदिवासी दंपत्ति अकबकाए रुमाल हाथ में लिया "हम तो बस यहाँ माताजी तक जा रहे हैं।"
"तुम तो साड़ी से सिर ढँके हो बच्चों को लपट लग रही है।" सुनकर वह हँस दी थोड़ी खिसियाई सी हँसी। "या तो उसे बीच में बैठाओ या उल्टा बैठाओ। बहुत गर्मी है। "
उनके चेहरे पर छोटी सी मुस्कान आई जिसकी कोई कीमत नहीं लगाई जा सकती और हम आगे बढ़ गये।
अगली शाम इंदौर में मार्केट जाना था इंडस्ट्री हाउस चौराहे पर गाड़ी सिग्नल पर रुकी थी। बगल में बाइक पर एक युवा कपल था अपनी बातों में मशगूल। इस उम्र में बातें भी तो बहुत होती हैं न जाने कहाँ कहाँ की बातें। सिग्नल हरा हो गया हम आगे बढ़े बाइक बगल में ही चल रही थी आसपास से गाड़ियाँ निकल रही थीं। व्यस्त चौराहा जो शाम के समय बेतरतीब हो जाता है पूरा ध्यान गाड़ी चलाने के साथ अगल बगल में भी देना पड़ता है। लड़का बाइक चला रहा था और लड़की इस समय भी बातें कर रही थी।
'हे भगवान अब से लड़कों को मल्टी टास्किंग स्किल दे कर ही भेजना।' सच में मन तो था कि कहूँ 'देवी थोड़ी देर तो चुप हो जाओ चौराहा निकल जाये फिर बातें कर लेना। वैसे मैं भी अपने साथ किसी को गाड़ी में इसीलिए नहीं बैठाती क्योंकि ट्राफिक हो या चौराहा बिना देखे समझे लोग बोलते जाते हैं तो जो चिढ़ पैदा करता है।
अगले दिन खरगोन वापसी थी। आजकल बायपास पर सुबह शाम जबरदस्त ट्राफिक होता है गाड़ी रेंग कर ही चलती है। यहाँ भी बगल में चलती एक बाइक पर नजर गई। अच्छा हम राजदूत सुजूकी जमाने के लोग नये जमाने की बाइक को अचरज और बेचारगी से देखते हैं। पीछे बैठी खाते पीते घर की लड़की आगे बैठे लड़के से चिपकी हुई थी। लड़का आगे की ओर झुका था हेंडल ही ऐसा था कि उसकी पीठ पचास डिग्री के कोण पर थी और पीठ पर लड़की का पूरा वजन था। 'बेचारा लड़का! लड़की को सीधा बैठने का भी नहीं कह सकता वह कहेगी इतना कमजोर है कि मेरा वजन नहीं झेल पा रहा है या बुरा ही मान जाये कि मुझे मोटा कहा।'
या शायद गाड़ी ही ऐसी है कि लद कर ही बैठना पड़ता है। कभी ऐसी गाड़ी पर बैठे नहीं तो कैसे पता होगा। बाइक आगे एक टाउनशिप की तरफ मुड़ गई और मैंने देखा लड़की सीधे बैठ गई। हा बेचारे लड़के की जान में जान आई होगी। अब मुझे तो ऐसा ही लगा हो सकता है लड़के को अच्छा लग रहा हो।
अब हम बायपास पर तेज गति से चल रहे थे तभी एक और विक्रम बेताल बाइक बगल में दिखी। अरे वही जिसमें पीछे वाली सीट इतनी ऊँची होती है कि लगता है वह आगे वाले की पीठ पर सवार है। अब बाइक पर दोनों लड़के थे तो फोटो ली जा सकती थी। चलती गाड़ी में फोटो लेना आसान तो नहीं है न। कभी लगता आ गई लेकिन एंगल बदल जाता कभी गाड़ी का नंबर आ जाता। खैर खूब सारी फोटो खींची और गाड़ी डिजाइन करने वाले को नमन किया।
कुछ और देर बाहर देखती तो कुछ और मैटर मिल जाता लेकिन धूप तेज हो रही थी इसलिए शीशे पर फलके लगाकर रेडियो पर गाने सुनते आगे का सफर तय किया।

Sunday, May 18, 2025

जाइंट लिली

 बात सन 80 की है। पापाजी का झाबुआ जिले के राणापुर से इंदौर ट्रांसफर हुआ था। इंदौर में खुद का मकान था जिसमें कभी रहे नहीं थे। हम तो बहुत छोटे थे अपने घर में रहने का सुख और इच्छा नहीं थी हमारे लिए तो जहाँ मम्मी पापा वही घर। इंदौर में मकान में किरायेदार थे उन्हें एक महीने पहले ही चिठ्ठी लिखकर मकान खाली करने को कह दिया गया था। उनकी जवाबी चिठ्ठी क्या आई नहीं पता।

वह पंद्रह अगस्त का दिन था। स्कूल में स्वतंत्रता दिवस का आयोजन था। मैं गर्ल्स गाइड में थी और मुझे परेड में शामिल होना था। सामान का ट्रक सुबह जल्दी निकलना था लेकिन मैं स्कूल जाने की जिद पर अड़ गई। स्कूल में झंडावदन किया बाकी कार्यक्रम की याद नहीं है। बस इतना याद है जब वापस घर आई ट्रक में सामान भरा जा चुका था। घर का एक चक्कर लगाने तक का समय नहीं था और हम सब भी उसी ट्रक में सवार हो गये।

दोपहर बाद इंदौर पहुँचे तो किरायेदार हमें सामान सहित देखकर हैरान हो गये। वे छह साल से मकान में रह रहे थे। मकान खाली करने की चिठ्ठी को उन्होंने किराया बढ़ाने के लिए धौंस सा समझा और निश्चिंत रहे।

सामान परिवार सहित मकान मालिक को सड़क पर तो नहीं रहने दे सकते। ताबड़तोड़ दो कमरे खाली किये जिनमें हमारा सामान रखा गया बाकी दो कमरों में उनका पाँच लोगों का परिवार समाया। तीन-चार दिन में उन्होंने मकान ढूँढकर बदला। छह साल में उन्होंने किचन में इतनी चीकट कर दी थी जिसे हम महीनों रगड़ते रहे।

उन्हें पेड़ पौधे लगाने का शौक था सामने रातरानी जाइंट लिली और भी कुछ पेड़ पौधे लगे थे जो वहीं छूट गये। जाइंट लिली में साल में एक बार फूल आयेगा यह वे बता गये थे। 

आज पैंतालीस सालों बाद भी उनका छोड़ा जाइंट लिली फूलता है और उनकी याद दिला देता है। आज वे कहाँ हैं पता नहीं लेकिन उनकी उपस्थिति उस घर में बनी है। एक पौधा इतने साल आपकी उपस्थिति बता सकता है इसलिए पेड़ लगाना चाहिए वे हमारे बाद भी हमारी याद दिलाते रहेंगे।

Friday, April 18, 2025

गंगा आरती

 

डेस्टिनेशन वेडिंग आजकल का सबसे पापुलर ट्रेंड है। किसी दर्शनीय स्थल पर्यटन स्थल पर किसी रिजार्ट में शादी करना। इसके कई महत्वपूर्ण पहलू हैं जैसे सिर्फ करीबी रिश्तेदारों को लेकर जाना शादी का पूरा कार्यक्रम इवेंट कंपनी को दे देना जिससे सभी मुक्त भाव से शादी में शामिल हो सकें। फोटो वीडियो में खूबसूरत बैकग्राउंड मिले वगैरह वगैरह।
तो मुद्दा यहाँ डेस्टिनेशन वेडिंग के लाभ हानि का नहीं है बल्कि है इसमें शामिल होने के अपने अनुभव का। ऋषिकेश से बारह पंद्रह किमी दूर एक रिजार्ट में एक शादी में शामिल होने का मौका मिला। गंगा नदी के किनारे यह छोटा सा रिजार्ट दो तल्ले में बना था एक तल में कमरे रिसेप्शन वगैरह दूसरे उससे निचले तल्ले में डाइनिंग हाल पूल आदि। पहाड़ काटकर बनाई जगह का खूबसूरत उपयोग किया गया था।
ऋषिकेश जाने के लिए देहरादून तक ही फ्लाइट मिलती हैं वह भी सीमित इसलिए हम रात तीन बजे उठकर एयरपोर्ट पहुँचे। कैब रात में ही बुक कर दी थी लेकिन उसे सुबह तीन बजे उठाना हमारी जिम्मेदारी थी। खैर वह साढ़े तीन बजे आ गया और चार बजे हम घर से निकल गये। एक बार नींद खुल जाये तो फिर आसानी से कहाँ आती है अलबत्ता भूख जरूर लग जाती है तो हमें भी छह बजे भूख लग आई। एयरपोर्ट पर ही वडा खाकर काफी पी और सवार हो गये एक छोटी-सी एयर टैक्सी में। साठ सत्तर सीटें होंगी बस। जब हम चले थे अंधेरा ही था पहले जयपुर में लैंड किया यहाँ ट्रांजिट था कुछ लोग उतरे कुछ चढे़ और हम देहरादून के लिए रवाना हो गए। आसमान में सूरज उगने को था मैं पूर्व तरफ की खिड़की पर बैठी थी। बादलों को चीरकर बाहर झांकते सूरज की फोटो लेना वैसे भी मुझे बहुत पसंद है इसलिये फटाफट तीन-चार फोटो लीं। फटाफट इसलिये क्योंकि जो सौंदर्य ओट से झाँकते मुखड़े का होता है वह पूर्ण दर्शन में कहाँ होता है। फिर आसमान में सीधा चलता प्लेन भी धीरे-धीरे मुड़ता है अपनी दिशा बदलता है और खिड़की के सामने दिखता सूरज या बादल का टुकड़ा पीछे ही नहीं छूटता गायब ही हो जाता है।
नीचे पहाड़ियाँ दिखने लगी थीं लेकिन सूर्य रश्मियाँ अभी धरती पर पहुँची नहीं थीं इसलिए कुछ स्पष्ट न था। खैर कुछ ही देर में हमें उस देवभूमि पर उतरना था इसलिए आँखों को ज्यादा कष्ट नहीं दिया।
देहरादून का एयरपोर्ट वैसे तो छोटा-सा है लेकिन भव्य है। बाहर विशाल खंबो पर टिकी छत उसके बीच से दिखता आसमान। बड़े बड़े तांबई खंबे जिन पर बौद्ध मंत्र लिखे थे।
इवेंट वालों की गाड़ी आ चुकी थी हमारी मंजिल दूर तो न थी लेकिन रास्ता आसान नहीं था। पहाड़ जितना लुभाते हैं उतना ही कठिन है इनमें यात्रा करना। घुमावदार रास्ते सिर घुमा देते हैं और पेड़ पहाड़ के बजाय सारा ध्यान खुद पर रहता है। वह तो अच्छा था कि एक रात पहले ही मैंने गोली खा ली थी इसलिए रास्ता आनंद से गुजर गया।
गाड़ी जब सड़क पर रुकी वहाँ उतरते अंदाजा भी नहीं था कि नीचे उतरते इस रास्ते से कहाँ पहुँचेंगे। इवेंट वाले तिलक की थाली और माला लिये खड़े थे हमारा स्वागत हुआ वेलकम ड्रिंक दिया गया और हमारे कमरे तक सामान पहुँचा।
कमरा अच्छा था बड़ा साफ-सुथरा और एक छोटी सी बालकनी भी। दरवाजा खोलकर बाहर आये तो वहाँ लाल मुँह के बंदरों को बैठे देखा। ओह तो बालकनी में इनका राज है मतलब दरवाजा खुला नहीं रख सकते बल्कि खुद भी बेपरवाही से खड़े नहीं रह सकते। सामने गंगा नदी थी और उसके किनारे कई नाव वाले खड़े थे ध्यान से देखा कुछ नाव थीं कुछ राफ्ट थे। रिवर राफ्टिंग कौन करना चाहता है इसके बारे में शादी के लिए बने व्हाटस अप ग्रुप में कई बार पूछा गया था लेकिन नदी की लहरों में जाना न बाबा। सफेद बालू का किनारा ऊपर चढ़ते विशाल पेड़ों से घिर गया था। वहाँ खड़े रहना भला लग रहा था लेकिन थकान भी हावी हो रही थी। अभी नहाना है फिर थोड़ा आराम कर लें। आज दिन भर मेहमानों का आना चलता रहेगा सबसे मिलना भी तो है।
नहाकर भूख लग आई हमने डाइनिंग हाॅल में जाकर खाना खाया जो नीचे वाले तल पर था इसके सामने एक स्वीमिंग पूल था और किनारे से गंगा जी दिख रही थीं। शांत हरा पानी जो उस तरफ के पहाड़ पर लगे पेड़ों की झांई के कारण हरा था पुकार रहा था अपने पास उकसा रहा था कि डुबकी लगा लो।
इस असमंजस से उबारा इस खबर ने कि शाम को गंगा आरती होगी। अरे तभी जाएंगे वैसे भी सामने दिखता तट लगभग सौ फीट नीचे था और धूप तेज थी बालू तप रही थी जाना शायद सरल हो लेकिन ऊपर चढना आसान नहीं होगा।
थोड़ा आराम तो क्या करते आने वालों से मिलने की हुलस ने नींद कहाँ आने दी। शाम पाँच बजे चाय पीकर हम नदी किनारे पहुँचे। ऊपर से जो नदी तट समतल दिख रहा था वह वास्तव में करीब छह आठ फीट नीचे था और वहाँ बालू की खड़ी दीवार सी थी। सावधानी से  नदी तक पहुँचे उसे प्रणाम करके उसमें उतरे। हिमालय से उतरी नदी इतनी दूर बहने पर भी बर्फ की ठंडक नहीं छोड़ पाई थी। दो मिनिट में ही पैर सुन्न हो गये लेकिन उससे बाहर आने का मन नहीं हो रहा था। मुँह हाथ धोकर डूबते सूरज को अर्ध्य दिया प्रणाम करके बाहर आये तब तक पैर जम चुके थे।
परिवार के सभी सदस्य आ चुके थे बातचीत हँसी फोटो का दौर चल रहा था। नदी किनारे बड़े पत्थर पर बैठें पानी में पैर डालें या बाहर रखें जैसी महत्वपूर्ण चर्चा चल रही थी। सूर्य अस्त नहीं हुआ था बस पहाड़ के पीछे चला गया था। वर पक्ष के मेहमान भी आ चुके थे वे भी नदी को प्रणाम करके फोटो खिंचवा रहे थे। पण्डित जी आरती की तैयारी में लगे थे। तेज हवा में दीपक की लौ का ठहरना मुश्किल था इसलिए रुई की बाती के साथ कपूर डाला गया था।
सब आरती के लिये इकठ्ठा होने लगे देखा वहाँ दो पण्डित जी हैं। ऊपर नजर दौड़ाई एक और रिजार्ट नजर आया। ओह अच्छा हमारे वाले पण्डित जी उधर हैं। हम अपनी चप्पलें छोड़ उधर भागे। मंत्र उच्चारण के साथ गंगा पूजन फिर आरती शुरू हुई। गंगा के प्रथम दर्शन के साथ ही मन में श्रद्धा उमड़ पड़ी थी। स्वर्ग से उतरी नदी पृथ्वी वासियों के पाप हरने के लिए। उन्हें अपने जल से तृप्त करने उनके लिए उपजाऊ मिट्टी लाकर उनकी क्षुधा शांत करने के लिए पहाड़ों को लाँघते पत्थरों पर उछलते अपने तन पर असंख्य चोटें सहते बह रही है। लोग उसका दोहन कर रहे हैं उसमें कचरा अपशिष्ट डाल रहे हैं लेकिन वह एक माँ की तरह अपने बच्चों की नादान हरकतों को नजरअंदाज कर बस बह रही है।
गंगा के सभी घाटों पर गंगा आरती कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए ही की जाती है। अद्भुत वातावरण था पहाड़ों पर ढलती सांझ की परछाई में गहन गंभीर होती गंगा के चमकीली बालू के तट पर देश के दूरदराज से आये लोग श्रद्धा से नतमस्तक होकर आरती में शामिल थे। बारी बारी से सभी दीपक लेकर आरती कर रहे थे और यह अवसर मिलने से अभिभूत थे।
आरती के बाद जिसकी इच्छा हो वह दीपदान कर सकता था पण्डित जी पत्तों के दोने में फूल और घी में डूबी बत्ती रखे हुए थे। जो चाहे दीपक ले ले और अपनी श्रद्धा अनुसार दक्षिणा दे दे।
हमने दीपक लिया खड़ी बालू पर गिरते फिसलते नीचे उतरे तेज हवा को हथेलियों से रोकते दीपक बाला और गंगा माँ को प्रणाम करके अपने बच्चों की खुशियों की कामना करते हुए उसे प्रवाहित कर दिया। दूर तक वह दीपक लहरों के साथ आगे बढ़ता रहा हम उसे देखते रहे चकित होते रहे। यह दीपक की जिजीविषा थी या माँ का प्यार जो हिचकोले खाते उस दीपक को संभाले हुए था ताकि वह अपनी शक्ति भर उजियारा करे और जीवंत रहे। चूँकि पहला दीपक हमारा था जो नजरों से ओझल होने तक टिमटिमा रहा था उसे देखते हम अग्नि और पानी की इस जुगलबंदी को उनकी एक दूसरे के प्रति सदाशयता को देख चमत्कृत थे।
अंधेरा हो चुका था इसलिए सभी ऊपर आ गये।

#ऋषिकेश

#गंगा_आरती

जिंदगी इक सफर है सुहाना

  खरगोन इंदौर के रास्ते में कुछ न कुछ ऐसा दिखता या होता ही है जो कभी मजेदार विचारणीय तो कभी हास्यापद होता है लेकिन एक ही ट्रिप में तीन चार ऐ...