Wednesday, December 14, 2022

नर्मदा यात्रा

 

परकम्मा 1
एक दिन में कितने किलोमीटर चल सकते हैं के विचार के साथ हिम्मत जुटाई गई थी यात्रा की। यात्रा जो की जा रही हैं सदियों से नदियों के किनारे की जंगलों की तीर्थ स्थलों की। हमारे मन में था इसका मूल भाव। यात्रा प्रकृति को निहारने की उसका हिस्सा बन जाने की उसमें समा जाने की उसे खुद में समाहित कर लेने की।
वर्ष 2022 के दूसरे महिने में औचक शुरू हुई यात्रा ने इतना उत्साहित कर दिया कि वर्ष की समाप्ति के दो महीने पहले फिर निकल पड़े नर्मदा और उसके किनारे के जंगलों में खो जाने को।
जहाँ पहले एक बड़े समूह की योजना थी जो बहुत सारी व्यवस्थाओं और खर्च को देखते हुए सीमित साथियों के साथ शुरू की गई। पिछली यात्रा से इतर इस बार खूब योजना बनीं खूब रिसर्च किये और अंततः तय हुई यात्रा की तिथि।
सुबह अपने अपने साधन से एक स्थान पर मिलना तय हुआ और तय हुआ जीवन को तय मानकों से इतर कुछ दिन बिताना।
जंगल के रास्ते केवडेश्वर महादेव पहुंचे तो वहाँ से नर्मदा का खूबसूरत प्रवाह दिखा लेकिन यह समझते देर न लगी कि यहाँ से बाकी साथियों का आना असंभव है। मोबाइल नेटवर्क नहीं था बडवाह शहर से मात्र दस किलोमीटर दूर मोबाइल नेटवर्क नहीं था तो न संपर्क कर सकते थे न गूगल महाराज की सेवा ले सकते थे। तय किया कि सुरतीपुरा तालाब के किनारे नाग मंदिर में रुक कर साथियों का इंतजार किया जाये।
सुदूर जंगल में एक मंदिर सेवा करने वाले चार छह लोग और मंदिर भी सड़क से बारह फीट नीचे उतर कर तालाब किनारे। जंगल में लकड़ी लेने आईं लडकियाँ औरतें जो ऊपर सड़क किनारे बैठे सुस्ता रही थीं बतिया रही थीं । न कोई परिचित न नेटवर्क लेकिन मन में भय का कोई विचार ही नहीं।
नर्मदे हर के अभिवादन के साथ ही आप इस में प्रवेश करने सुस्ताने और चाय पाने के अधिकारी हो जाते हैं। नाग देवता आदिवासियों के ईष्ट देव हैं और उनके मंदिर में सभी सुरक्षित। मैंने वहाँ रुकना निश्चित किया पतिदेव को आफिस जाना था वे चले गए।
मंदिर के बगल में बना हुआ है बड़ा हाॅल जो परकम्मा वालों की विश्राम स्थली है। आओ अपनी चादर बिछाओ और सोओ लेटो। हाल से उतर कर जाती हैं सीढियाँ तालाब किनारे जो पानी काई कमल के पत्रों से ढंकी हैं। तालाब के ऊपर फैले कमल के पत्ते उन पर गिरे सागौन के सूखे पत्ते उनके बीच सिर उठाए खड़े कमल के फूल और उन तक जाने के लिए एक डोंगी आसपास चहकते पंछी। सच कहूँ अगर साथियों का इंतजार नहीं होता न तो वहाँ दिन भर बैठकर एक कहानी तो बुन ही लेती।
चाय बनकर आ गई समय न खाने का था न नाश्ते का लेकिन अतिथि को कुछ तो देना चाहिए इसलिये सेवादार दो सेब लेकर आया दीदी खा लीजिये। बहुत आग्रह किया मान तो रखना था फिर चाय बनकर आ गई कड़क मीठी निमाडी चाय।
इस नीरवता में बाहर से आती लड़कियों पंछियों की चहकती आवाजें सेवादारों की भोजन की तैयारी की बातचीत भी शामिल थीं। थोड़ी देर में गाड़ी की आवाज के साथ इंतजार खत्म हुआ। बाहर आई तो पता चला गाड़ी तो आई है लेकिन साथी आधा किलोमीटर जंगल में चलने का प्रलोभन छोड़ नहीं पाए तो पैदल आ रहे हैं।
आते ही सब जुट गये अपने अपने पसंदीदा चीजों की फोटो लेने किसी को जंगल भाया किसी को तालाब तो कोई लड़कियों के सिर पर लकड़ियों की भारी के बावजूद उनकी उत्फुल्लता से रीझ गया तो किसी को आगे जाते रास्ते ने मोहा। फिर लगा जयकारा नर्मदे हर शुरू हुई यात्रा।

कविता वर्मा 

Saturday, November 12, 2022

अब तो बेलि फैल गई

 मेरी बात 


आम मध्यमवर्ग के पास जब कमाने खाने की चिंता कुछ कम होती है तब उनके जीवन में अलग तरह के दुख चिंता परेशानी अपनी पैठ बना लेते हैं। वे इतने चुपके से जीवन में रिसते हैं कि बाहर से दिखते नहीं है और अपनी सीलन से जीवन की उष्णता को बुझाते रहते हैं। हर दिन हर क्षण जीवन के उमंग उत्साह के कम होते रहने से जीवन में व्याप्त अंधेरी सीलन का एहसास तब होता है जब उसमें भावनाओं का कोई दीपक टिमटिमाने लगे। 
समाज में अकेली स्त्री का जीवन कठिन है उसके हर क्रियाकलाप पर नजरों की पहरेदारी रहती है। इन नजरों के बीच, बेचारगी और लांछनों को परे रख स्व को बचाए रखना एक कठिन और सतत प्रक्रिया है। जरा चूके और सम्मान आत्मभिमान दम तोड़ देगा। इसके बावजूद यह स्त्री का नैसर्गिक गुण है या समाज की सदाशयता वह इस अकेली स्त्री को अपने में शामिल कर लेता है। प्यार दोस्ती सहानुभूति बेचारगी लाँछना और मदद के जरिए उसके होने की स्वीकृति देता है। 

दूसरी ओर अकेले पुरुष की स्थिति इतनी उपेक्षित है कि उसकी उपस्थिति की स्वीकार्यता ही नहीं दिखती। अगर वह लंपट है तो शायद घुसपैठ बना ले लेकिन शरीफ अकेला अपने अपराध बोध से ग्रस्त और जिम्मेदारियों से दबा पुरुष न खुद खुलकर समाज का हिस्सा हो पाता है और न ही समाज उसका बाँहें फैलाकर स्वागत करता है। वह या तो अपने जैसे अकेले साथियों को ढूँढे या अपने सुख-दुख और अकेलेपन के साथ खुद में सिमटा रहे।

अकेले पुरुष को समाज में कोई महत्व ही नहीं दिया जाता वह भी कहाँ अपनी परेशानियाँ कह पाता है और कहे भी तो सुने कौन समझे कौन? इसका यह मतलब तो नहीं है कि सब बढ़िया है मजे में है। इस बढ़िया के तले देखने की कोशिश की है इस उपन्यास में। 
जीवन में प्रेम पाने की ललक युवावस्था में ज्यादा होती है एक लंबा जीवन जी कर सब कुछ पाकर बहुत कुछ खो देने वाले इंसान के लिए प्रेम करना इतना आसान भी नहीं है। बल्कि वह तो इस एहसास को जुबान पर लाते और महसूस करते भी कतराते हैं। उसे तो इसके पहले बचे हुए को समेटने की चिंता सताती है। रिश्तों पर विश्वास कर पाने की जद्दोजहद, दबाव, छलावा, छवि का तड़कना ऊपर से शांत दिखने वाले जीवन की तलहटी में हलचल मचाते हुए धुँधलापन फैलाते रहते हैं। ये जीवन के झंझावात की तरह होते हैं जिनसे बचना आसान नहीं है। 
खोकर पाने और पाकर खोने वालों के लिए जीवन को देखने की दृष्टि अलग-अलग होती है। जिसने सब कुछ पाकर खोया है वह बचे हुए की सार संभाल के लिए सतर्क होता है। कुछ और पाने की आकाँक्षा भले हो लेकिन बचे हुए को दाँव पर लगाने की हिम्मत नहीं होती। जीवन के हर कदम हर निर्णय पर इसका असर स्पष्ट नजर आता है। खो देने के बाद का खालीपन जीवन पर छाया रहता है। 
खोकर पाने वाले का जीवट शायद कुछ बड़ा होता है। वे खोने के दर्द को पीना सीख जाते हैं और फिर आगे बढ़ना भी। इन दोनों ही तरह के लोगों के परस्पर सामंजस्य से जिंदगी की मुश्किलें हल करने की दिशा मिलती है। यही दोस्ती के दायरे बनाती है तो इससे आगे बढ़कर प्रेम और विश्वास की राह भी। 

भारतीय समाज में खून के रिश्ते हमेशा सर्वोपरि रहे हैं जबकि इनमें निरंतर हास देखा गया है। सुख दुख में कहीं ये सबसे बढ़कर हैं तो कहीं तटस्थ और कहीं इससे भी आगे बढ़कर स्वार्थ सिद्धि का साधन। फिर भी इन का कमजोर होना, टूटना दिल को दुख देता है। यह किसी भी व्यक्ति के जीवन का इतना गहरा आघात होता है कि इसके बाद किसी अन्य पर विश्वास होना तो कठिन होता ही है खुद पर से विश्वास खत्म हो सकता है। ऐसे लोगों की स्थिति समझना आम लोगों के लिए संभव नहीं होता। समाज में बदलाव आते आते भी पुरानी धारणाएँ मन को जकड़ती हैं। महानगर की विराटता में यह जकड़न भले शिथिल पड़े इसके पहले व्यक्ति लंबी प्रक्रिया से गुजरता है।
 
वस्तुतः मानव का स्वभाव, निर्णय लेने की क्षमता उसके जीवन की इन्हीं घटनाओं और उसे मिलने वाले व्यवहार से प्रभावित होती हैं, जिसे जाने समझे बिना किसी को टैग करना हमारे समाज में बेहद आम है। घटनाएँ भले छोटी हों उनके प्रभाव गहरे और व्यापक होते हैं।

'अब तो बेलि फैल गई' ऐसे ही लोगों के जीवन की कहानी है जो अचानक मिले, अपनी और एक दूसरों की जरूरतों के चलते जुड़ते गए, इस जुड़ाव से उपजी जिम्मेदारी ने विश्वास पैदा किया जो दोस्ती में बदलते एक मुकाम पर पहुँचा।
 यह उपन्यास इन्हीं परिस्थितियों के दुख तनाव के साथ आगे बढ़ते हुए अपनी लय पाता रहा है।  इसके पात्र हमारे आपके आसपास के छोटे कस्बे से महानगर तक विद्यमान हैं।
इस उपन्यास को लिखते पात्रो की बैचेनियों ने लिखने न दिया लेकिन डॉ सोनल ने लगातार हौसला बनाया तो आदरणीय सुनील चतुर्वेदी जी ने इसे पढ़कर आश्वस्त किया और इसे पूरा करने की राह प्रशस्त की। प्रिय छोटी बहन रक्षा दुबे चौबे जिन्होंने पुस्तक के कवर पेज को बनाने की जिम्मेदारी अपनी व्यस्तताओं के बाबजूद उठाई। उनकी बहुत आभारी हूँ।
इसे पढ़ते अगर आप अपने आसपास के लोगों को देखते और समझते हैं तो यह इस उपन्यास की सार्थकता होगी। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा। 

अत्यंत हर्ष के साथ सूचित किया जता है कि मेरा उपन्यास ‘अब तो बेलि फैल गई’, ‘अद्विक पब्लिकेशन’ (दिल्ली) से प्रकाशित हुआ है। जिसे पाठक अमेज़न से या सीधे ही प्रकाशक से सम्पर्क कर प्राप्त कर सकते हैं।

प्रकाशक अशोक गुप्ता जी से सम्पर्क कर पुस्तक मँगवाने पर प्रथम सौ पाठकों के लिए डाक-शुल्क ‘अद्विक पब्लिकेशन’ द्वारा वहन किया जाएगा।

अपनी प्रति प्राप्त करने के लिए कृति का मूल्य रु. 250/- (ढाई सौ मात्र) 9560397075 नंबर पर ‘पेटीएम’, ‘गूगल पे’ या ‘फोन पे’ द्वारा अदा करें और स्क्रीन-शॉट सहित अपना पूरा पता whatsapp कर दें।

कविता वर्मा 

Tuesday, September 13, 2022

बाल बाल बचे

 

#बाल_बाल_बचे
#गुस्से_के_गुड_इफेक्ट
मोबाइल हाथ में ही था जब एक मैसेज आया कि अकाउंट में तीन सौ रुपये आये हैं। एक बार देखा फिर सोचा आये होंगे और वापस अपने सर्फिंग में व्यस्त हो गई। वैसे भी यह विभाग मेरा नहीं है इसलिये कभी देखती भी नहीं हूँ हाँ पतिदेव को फारवर्ड कर देती हूँ तो कर दिया।
तभी एक अनजान नंबर से फोन आया "मैडम आपके अकाउंट में गलती से हमारे तीन सौ रुपये आ गये आप उसे उसी नंबर पर वापस कर दीजिए। हमसे गलती से चले गये।"
सुनते ही वह मैसेज दिमाग में कौंधा। लगा शायद किसी ने मोबाइल रिचार्ज किया होगा (क्योंकि मैं बस इतना ही करती हूँ तो इसके आगे सोच ही नहीं पाई) और एकाध डिजिट गलत दबा दी।
"हाँ तीन सौ रुपये तो आये हैं लेकिन उन्हें वापस कैसे करना है यह मुझे नहीं आता "मैंने असमर्थता जताई।
तभी पीछे से कोई दूसरा लड़का बोला "मैडम वो हम रास्ते में थे जल्दी जल्दी में गलत नंबर चला गया। हमारे लिये बहुत मुश्किल हो जायेगी आप उसे वापस कर दीजिए।"
"कहाँ से बोल रहे हो? "
"बड़ौद से हम बाहर जा रहे थे। "
अब तक मुझे उन पर दया आने लगी लेकिन तब भी मुझे सच में समझ नहीं आया कि उसके पैसे कैसे वापस करूँ।
" ऐसा करिये कि आप इंदौर आयें तो बता दें मैं कैश में आपके पैसे वापस कर दूँगी "
अब उसने पैंतरा बदला" मैडम हम बैंगलोर में हैं वहाँ से आने में ही हमें तीन हजार रुपये लग जाएंगे।"
"तो आपको ध्यान रखना चाहिए था। मैंने तो आपको कहा नहीं था पैसे डालने के लिए" बार बार एक ही बात दोहराते मेरा धैर्य जवाब देने लगा।
" मैडम प्लीज कर दीजिए न इंसानियत के लिए..."
अब तो मेरा पारा हाई हो गया।" इंसानियत के लिए का क्या मतलब? अगर मुझे पैसे वापस करना नहीं आता तो क्या मैं जानवर हो गई? क्या करूँगी मैं आपके तीन सौ रुपट्टी का? क्या बोल रहे हो कुछ समझ आ रहा है?"
अब पता नहीं मेरे गुस्से से या बातचीत से घबराकर उन्होंने कहा ठीक है मैडम और फोन बंद कर दिया।
फोन बंद करने के बाद मैंने थोड़ी देर सोचा फिर मुझे लगा कि फोन नंबर पर भी तो पे किया जा सकता है। बेचारे के लिए तीन सौ रुपये बड़ी रकम हो सकती है और मैं किसी के पैसे रखकर क्या करूँगी?
तो इंसानियत दिखाते हुए फोन नंबर पर पेमेंट करने का सोचा और एप खोलकर नंबर टाइप करने लगी। आधा नंबर टाइप करने के बाद अचानक न जाने कैसे दिमाग में कौंधा कि कहीं ये कोई फ्राड तो नहीं है? इतना ध्यान आते ही मैंने एप तुरंत बंद किया और हसबैंड को फोन लगाया।
जैसे ही उन्हें बताया वे तुरंत बोले कुछ मत करना यह फ्राड है अकाउंट डिटेल चली गई तो अकाउंट साफ हो जायेगा।
हे भगवान तो इंसानियत दिखाने की बात उकसाने के लिए थी वह तो भला हो जल्दी हाइपर होने की अपनी आदत का कि मैं भड़क गई और बाल बाल बची।
कविता वर्मा

Monday, February 28, 2022

प्रेस किये कपड़े

 प्रेस किये कपड़े

पतिदेव की पोस्टिंग राजपुर में थी। घर के कुछ जरूरी सामान साथ लाये थे क्योंकि तब उस छोटे से कस्बे में इतना बड़ा घर मिलना ही मुश्किल था कि सभी सामान समा जाये। इन सामानों में कपड़े प्रेस करने वाली इस्त्री भी थी।

दरअसल हमारे पापाजी बहुत बढ़िया कपड़े प्रेस करते थे और उन्हें देखकर हमने सीखा। शादी के पहले पतिदेव खुद कपड़े प्रेस करते थे और बाद में धीरे धीरे यह काम हमने ले लिया। जिस दिन कपड़े धुलते उसी दिन प्रेस हो जाते और व्यवस्थित रखाते। एक के ऊपर एक रखने से निकालने में बिगड़ न जायें इसलिये कपड़े की एक जोड़ी छोटी तह में हैंगर पर टांग देती। राजपुर में शहर के व्यस्त चौराहे पर ही घर था और वहाँ एक चबूतरे पर एक प्रेस वाली बैठती थी। वह घर आकर बोल गई कि कपड़े भिजवा दिया करो मैं खुद आकर दे जाऊँगी। हालाँकि वह समय इतनी रईसी का नहीं था फिर भी कभी-कभी कपड़े भिजवा देती थी। लेकिन उसके प्रेस किये कपड़े पसंद ही नहीं आते थे। शोल्डर तक प्रेस न पहुंचती आस्तीन में पेंट में डबल क्रीज बन जाती आस्तीन मोड़ कर तह करने में उसमें ढेर सिलवटें आ जातीं। जब भी पतिदेव पहनते तब तब मैं भुनभुनाती और वे कहते ठीक है गरीब है हमसे उम्मीद है कभी-कभी भेज दिया करो।

एक दिन मैंने उसे तीन-चार जोड़ी कपड़े भेजे और घर में बेटी की यूनिफार्म और पतिदेव के कुछ कपड़े प्रेस किये। तभी उसने कपड़े भिजवाये और उन्हें अलमारी में टांगने के पहले उनकी प्रेस देखकर माथा भन्ना गया। मैंने बेटी को भेजकर उसे बुलवाया। वह आई तो मैंने उसकी प्रेस की शर्ट खोलकर उसे दिखाई साथ ही अपने हाथ की प्रेस किये कुछ कपड़े उसे दिखाये। उसे बताया कि शोल्डर आस्तीन और पेंट की प्रेस में क्या दिक्कतें हैं और यह भी कि ऐसे कपड़े पहन कर बड़े अधिकारियों के साथ मीटिंग करना ठीक नहीं लगता। उसे बताया कि बात पैसों की नहीं है लेकिन काम जिस तरह होना चाहिये वैसा ही चाहिये उससे कम बर्दाश्त नहीं है। अगर ऐसा काम कर सको तो मैं कपड़े भिजवा दिया करूंगी।

उसने कपड़े देखे और आश्चर्य से उसका मुँह खुला रह गया कि ये कपड़े मैंने नार्मल घरेलू प्रेस से बनाये हैं। उसने तीन-चार बार पूछ कर तसल्ली की फिर उसे एक शर्ट प्रेस करके दिखाई।

अब उसे कहने को कुछ नहीं रह गया था मैंने कहा कि मैं कपड़े भिजवाऊंगी लेकिन प्रेस ध्यान से करना।

यह पढ़कर शायद लगे कि गरीब महिला को काम देना चाहिए लेकिन पैसे देकर काम करवाने पर काम की क्वालिटी मिलना ही चाहिये और इसके लिए उन्हें आगाह करना उनके भले के लिए ही होता है कोई क्रूरता नहीं होती।

#यादें

नर्मदे हर

 बेटियों की शादी के बाद से देव धोक लगातार चल रहा है। आते-जाते रास्ते में किसी मंदिर जाते न जाने कब किस किस के सामने बेटियों के सुंदर सुखद जी...