Thursday, June 19, 2025

जिंदगी इक सफर है सुहाना

 

खरगोन इंदौर के रास्ते में कुछ न कुछ ऐसा दिखता या होता ही है जो कभी मजेदार विचारणीय तो कभी हास्यापद होता है लेकिन एक ही ट्रिप में तीन चार ऐसी घटनाएँ कम ही होती हैं।
आजकल खरगोन या इंदौर से निकलते देर हो ही जाती है। तेज धूप में गाड़ी में चलता एसी भी कभी-कभी घुटन पैदा करता है। इस बार खरगोन से निकले सुबह के दस बजे अमूमन इस समय तक हम इंदौर पहुँच जाते हैं। जाम घाट पर चढ़ते समय तक तेज धूप गर्म हवा ने विंड शीट को भी गर्म कर दिया था जिसके कारण बार बार एसी को फ्रंट ब्लोअर पर करना पड़ रहा था ताकि काँच ठंडा हो और गाड़ी भी। ऐसी चिलचिलाती धूप में गाड़ी के सभी काँच पर काले फलके लगे रहते हैं और मैं तो अपनी तरफ इन्हें दोहरा करके लगा लेती हूँ। इतनी धूप में घाट के हरे भरे पेड़ भी आँखों को ठंडक नहीं दे पाते। हाँ उन्हें देखती जरूर रहती हूँ लेकिन बस सामने से।
तभी आगे एक बाइक पर एक परिवार जाता दिखा। पति पत्नी। पत्नी ने हवा में उड़ गया अपना साड़ी का सीधा पल्ला सिर पर रखा तब दिखा कि उसकी गोद में एक छोटा बच्चा है। अच्छा बच्चों को लोग सीधे बाहर की ओर मुँह करके बैठाते हैं। गर्मी में आधे कपड़े पहने वे मुँह हाथ पैर में हवा के थपेड़े सहते रहते हैं।
गाड़ी उन्हें ओवरटेक करके आगे बढ़ी तो देखा एक पाँच छह साल का बच्चा आगे भी बैठा था। मैंने ब्लैक शीट हटाकर देखा। नींद में ऊँघता सा गर्मी से बेहाल। हाय बेचारे मासूम बच्चे बता भी नहीं पाते कि उन्हें कोई तकलीफ है और माता-पिता समझते नहीं हैं कि उनके सिर पर रुमाल बाँध दें मुँह ढँक दें बीच में बैठा लें या उल्टी तरफ मुँह करके ही बैठा दें।
ओह बेचारा बच्चा!
"तुम्हारी जेब में रुमाल है क्या?" हमारे लेडीज रुमाल के प्रयोग बड़े सीमित होते हैं।
"हाँ क्यों पर एक ही है"
"ठीक है न तुम्हें कौन सा पसीना आना है एसी में बैठे हो। निकालो"
इतने वार्तालाप में गाड़ी लगातार चल रही थी और उनसे काफी आगे आ गई थी। अब गाड़ी धीमी की रुमाल खोलकर एसी वेंट के सामने कर फ्रेश किया और इंतजार करने लगे उस बाइक के आने का। हालाँकि ट्राफिक कम था लेकिन बीच घाट में रुकना ठीक नहीं था। रेयर मिरर में हम बाइक को आते देखते रहे।
अच्छा बाइक वालों को किसी भी तरफ से ओवरटेक करने की सुविधा हमारे देश में उपलब्ध है। उनके लिए दायां बांया कुछ नहीं होता बस जहाँ अगले टायर के समाने की जगह मिले वहाँ से निकल लो। इसलिये मैंने भी अपनी तरफ के फलके हटा दिये ऊँगली शीशा खोलने के लिए तैयार रखी थी वह पास आता जा रहा था और पास और पास।
किस तरफ से निकलेगा मेरी तरफ से दूसरी तरफ से और वह बगल से निकला। पतिदेव ने शीशा नीचे किया हाथ देकर उसे रोका रुमाल निकाल कर उसे दिया।
"ये बच्चे को बाँध दो बहुत गर्मी है।"
वे दोनों आदिवासी दंपत्ति अकबकाए रुमाल हाथ में लिया "हम तो बस यहाँ माताजी तक जा रहे हैं।"
"तुम तो साड़ी से सिर ढँके हो बच्चों को लपट लग रही है।" सुनकर वह हँस दी थोड़ी खिसियाई सी हँसी। "या तो उसे बीच में बैठाओ या उल्टा बैठाओ। बहुत गर्मी है। "
उनके चेहरे पर छोटी सी मुस्कान आई जिसकी कोई कीमत नहीं लगाई जा सकती और हम आगे बढ़ गये।
अगली शाम इंदौर में मार्केट जाना था इंडस्ट्री हाउस चौराहे पर गाड़ी सिग्नल पर रुकी थी। बगल में बाइक पर एक युवा कपल था अपनी बातों में मशगूल। इस उम्र में बातें भी तो बहुत होती हैं न जाने कहाँ कहाँ की बातें। सिग्नल हरा हो गया हम आगे बढ़े बाइक बगल में ही चल रही थी आसपास से गाड़ियाँ निकल रही थीं। व्यस्त चौराहा जो शाम के समय बेतरतीब हो जाता है पूरा ध्यान गाड़ी चलाने के साथ अगल बगल में भी देना पड़ता है। लड़का बाइक चला रहा था और लड़की इस समय भी बातें कर रही थी।
'हे भगवान अब से लड़कों को मल्टी टास्किंग स्किल दे कर ही भेजना।' सच में मन तो था कि कहूँ 'देवी थोड़ी देर तो चुप हो जाओ चौराहा निकल जाये फिर बातें कर लेना। वैसे मैं भी अपने साथ किसी को गाड़ी में इसीलिए नहीं बैठाती क्योंकि ट्राफिक हो या चौराहा बिना देखे समझे लोग बोलते जाते हैं तो जो चिढ़ पैदा करता है।
अगले दिन खरगोन वापसी थी। आजकल बायपास पर सुबह शाम जबरदस्त ट्राफिक होता है गाड़ी रेंग कर ही चलती है। यहाँ भी बगल में चलती एक बाइक पर नजर गई। अच्छा हम राजदूत सुजूकी जमाने के लोग नये जमाने की बाइक को अचरज और बेचारगी से देखते हैं। पीछे बैठी खाते पीते घर की लड़की आगे बैठे लड़के से चिपकी हुई थी। लड़का आगे की ओर झुका था हेंडल ही ऐसा था कि उसकी पीठ पचास डिग्री के कोण पर थी और पीठ पर लड़की का पूरा वजन था। 'बेचारा लड़का! लड़की को सीधा बैठने का भी नहीं कह सकता वह कहेगी इतना कमजोर है कि मेरा वजन नहीं झेल पा रहा है या बुरा ही मान जाये कि मुझे मोटा कहा।'
या शायद गाड़ी ही ऐसी है कि लद कर ही बैठना पड़ता है। कभी ऐसी गाड़ी पर बैठे नहीं तो कैसे पता होगा। बाइक आगे एक टाउनशिप की तरफ मुड़ गई और मैंने देखा लड़की सीधे बैठ गई। हा बेचारे लड़के की जान में जान आई होगी। अब मुझे तो ऐसा ही लगा हो सकता है लड़के को अच्छा लग रहा हो।
अब हम बायपास पर तेज गति से चल रहे थे तभी एक और विक्रम बेताल बाइक बगल में दिखी। अरे वही जिसमें पीछे वाली सीट इतनी ऊँची होती है कि लगता है वह आगे वाले की पीठ पर सवार है। अब बाइक पर दोनों लड़के थे तो फोटो ली जा सकती थी। चलती गाड़ी में फोटो लेना आसान तो नहीं है न। कभी लगता आ गई लेकिन एंगल बदल जाता कभी गाड़ी का नंबर आ जाता। खैर खूब सारी फोटो खींची और गाड़ी डिजाइन करने वाले को नमन किया।
कुछ और देर बाहर देखती तो कुछ और मैटर मिल जाता लेकिन धूप तेज हो रही थी इसलिए शीशे पर फलके लगाकर रेडियो पर गाने सुनते आगे का सफर तय किया।

Sunday, May 18, 2025

जाइंट लिली

 बात सन 80 की है। पापाजी का झाबुआ जिले के राणापुर से इंदौर ट्रांसफर हुआ था। इंदौर में खुद का मकान था जिसमें कभी रहे नहीं थे। हम तो बहुत छोटे थे अपने घर में रहने का सुख और इच्छा नहीं थी हमारे लिए तो जहाँ मम्मी पापा वही घर। इंदौर में मकान में किरायेदार थे उन्हें एक महीने पहले ही चिठ्ठी लिखकर मकान खाली करने को कह दिया गया था। उनकी जवाबी चिठ्ठी क्या आई नहीं पता।

वह पंद्रह अगस्त का दिन था। स्कूल में स्वतंत्रता दिवस का आयोजन था। मैं गर्ल्स गाइड में थी और मुझे परेड में शामिल होना था। सामान का ट्रक सुबह जल्दी निकलना था लेकिन मैं स्कूल जाने की जिद पर अड़ गई। स्कूल में झंडावदन किया बाकी कार्यक्रम की याद नहीं है। बस इतना याद है जब वापस घर आई ट्रक में सामान भरा जा चुका था। घर का एक चक्कर लगाने तक का समय नहीं था और हम सब भी उसी ट्रक में सवार हो गये।

दोपहर बाद इंदौर पहुँचे तो किरायेदार हमें सामान सहित देखकर हैरान हो गये। वे छह साल से मकान में रह रहे थे। मकान खाली करने की चिठ्ठी को उन्होंने किराया बढ़ाने के लिए धौंस सा समझा और निश्चिंत रहे।

सामान परिवार सहित मकान मालिक को सड़क पर तो नहीं रहने दे सकते। ताबड़तोड़ दो कमरे खाली किये जिनमें हमारा सामान रखा गया बाकी दो कमरों में उनका पाँच लोगों का परिवार समाया। तीन-चार दिन में उन्होंने मकान ढूँढकर बदला। छह साल में उन्होंने किचन में इतनी चीकट कर दी थी जिसे हम महीनों रगड़ते रहे।

उन्हें पेड़ पौधे लगाने का शौक था सामने रातरानी जाइंट लिली और भी कुछ पेड़ पौधे लगे थे जो वहीं छूट गये। जाइंट लिली में साल में एक बार फूल आयेगा यह वे बता गये थे। 

आज पैंतालीस सालों बाद भी उनका छोड़ा जाइंट लिली फूलता है और उनकी याद दिला देता है। आज वे कहाँ हैं पता नहीं लेकिन उनकी उपस्थिति उस घर में बनी है। एक पौधा इतने साल आपकी उपस्थिति बता सकता है इसलिए पेड़ लगाना चाहिए वे हमारे बाद भी हमारी याद दिलाते रहेंगे।

Friday, April 18, 2025

गंगा आरती

 

डेस्टिनेशन वेडिंग आजकल का सबसे पापुलर ट्रेंड है। किसी दर्शनीय स्थल पर्यटन स्थल पर किसी रिजार्ट में शादी करना। इसके कई महत्वपूर्ण पहलू हैं जैसे सिर्फ करीबी रिश्तेदारों को लेकर जाना शादी का पूरा कार्यक्रम इवेंट कंपनी को दे देना जिससे सभी मुक्त भाव से शादी में शामिल हो सकें। फोटो वीडियो में खूबसूरत बैकग्राउंड मिले वगैरह वगैरह।
तो मुद्दा यहाँ डेस्टिनेशन वेडिंग के लाभ हानि का नहीं है बल्कि है इसमें शामिल होने के अपने अनुभव का। ऋषिकेश से बारह पंद्रह किमी दूर एक रिजार्ट में एक शादी में शामिल होने का मौका मिला। गंगा नदी के किनारे यह छोटा सा रिजार्ट दो तल्ले में बना था एक तल में कमरे रिसेप्शन वगैरह दूसरे उससे निचले तल्ले में डाइनिंग हाल पूल आदि। पहाड़ काटकर बनाई जगह का खूबसूरत उपयोग किया गया था।
ऋषिकेश जाने के लिए देहरादून तक ही फ्लाइट मिलती हैं वह भी सीमित इसलिए हम रात तीन बजे उठकर एयरपोर्ट पहुँचे। कैब रात में ही बुक कर दी थी लेकिन उसे सुबह तीन बजे उठाना हमारी जिम्मेदारी थी। खैर वह साढ़े तीन बजे आ गया और चार बजे हम घर से निकल गये। एक बार नींद खुल जाये तो फिर आसानी से कहाँ आती है अलबत्ता भूख जरूर लग जाती है तो हमें भी छह बजे भूख लग आई। एयरपोर्ट पर ही वडा खाकर काफी पी और सवार हो गये एक छोटी-सी एयर टैक्सी में। साठ सत्तर सीटें होंगी बस। जब हम चले थे अंधेरा ही था पहले जयपुर में लैंड किया यहाँ ट्रांजिट था कुछ लोग उतरे कुछ चढे़ और हम देहरादून के लिए रवाना हो गए। आसमान में सूरज उगने को था मैं पूर्व तरफ की खिड़की पर बैठी थी। बादलों को चीरकर बाहर झांकते सूरज की फोटो लेना वैसे भी मुझे बहुत पसंद है इसलिये फटाफट तीन-चार फोटो लीं। फटाफट इसलिये क्योंकि जो सौंदर्य ओट से झाँकते मुखड़े का होता है वह पूर्ण दर्शन में कहाँ होता है। फिर आसमान में सीधा चलता प्लेन भी धीरे-धीरे मुड़ता है अपनी दिशा बदलता है और खिड़की के सामने दिखता सूरज या बादल का टुकड़ा पीछे ही नहीं छूटता गायब ही हो जाता है।
नीचे पहाड़ियाँ दिखने लगी थीं लेकिन सूर्य रश्मियाँ अभी धरती पर पहुँची नहीं थीं इसलिए कुछ स्पष्ट न था। खैर कुछ ही देर में हमें उस देवभूमि पर उतरना था इसलिए आँखों को ज्यादा कष्ट नहीं दिया।
देहरादून का एयरपोर्ट वैसे तो छोटा-सा है लेकिन भव्य है। बाहर विशाल खंबो पर टिकी छत उसके बीच से दिखता आसमान। बड़े बड़े तांबई खंबे जिन पर बौद्ध मंत्र लिखे थे।
इवेंट वालों की गाड़ी आ चुकी थी हमारी मंजिल दूर तो न थी लेकिन रास्ता आसान नहीं था। पहाड़ जितना लुभाते हैं उतना ही कठिन है इनमें यात्रा करना। घुमावदार रास्ते सिर घुमा देते हैं और पेड़ पहाड़ के बजाय सारा ध्यान खुद पर रहता है। वह तो अच्छा था कि एक रात पहले ही मैंने गोली खा ली थी इसलिए रास्ता आनंद से गुजर गया।
गाड़ी जब सड़क पर रुकी वहाँ उतरते अंदाजा भी नहीं था कि नीचे उतरते इस रास्ते से कहाँ पहुँचेंगे। इवेंट वाले तिलक की थाली और माला लिये खड़े थे हमारा स्वागत हुआ वेलकम ड्रिंक दिया गया और हमारे कमरे तक सामान पहुँचा।
कमरा अच्छा था बड़ा साफ-सुथरा और एक छोटी सी बालकनी भी। दरवाजा खोलकर बाहर आये तो वहाँ लाल मुँह के बंदरों को बैठे देखा। ओह तो बालकनी में इनका राज है मतलब दरवाजा खुला नहीं रख सकते बल्कि खुद भी बेपरवाही से खड़े नहीं रह सकते। सामने गंगा नदी थी और उसके किनारे कई नाव वाले खड़े थे ध्यान से देखा कुछ नाव थीं कुछ राफ्ट थे। रिवर राफ्टिंग कौन करना चाहता है इसके बारे में शादी के लिए बने व्हाटस अप ग्रुप में कई बार पूछा गया था लेकिन नदी की लहरों में जाना न बाबा। सफेद बालू का किनारा ऊपर चढ़ते विशाल पेड़ों से घिर गया था। वहाँ खड़े रहना भला लग रहा था लेकिन थकान भी हावी हो रही थी। अभी नहाना है फिर थोड़ा आराम कर लें। आज दिन भर मेहमानों का आना चलता रहेगा सबसे मिलना भी तो है।
नहाकर भूख लग आई हमने डाइनिंग हाॅल में जाकर खाना खाया जो नीचे वाले तल पर था इसके सामने एक स्वीमिंग पूल था और किनारे से गंगा जी दिख रही थीं। शांत हरा पानी जो उस तरफ के पहाड़ पर लगे पेड़ों की झांई के कारण हरा था पुकार रहा था अपने पास उकसा रहा था कि डुबकी लगा लो।
इस असमंजस से उबारा इस खबर ने कि शाम को गंगा आरती होगी। अरे तभी जाएंगे वैसे भी सामने दिखता तट लगभग सौ फीट नीचे था और धूप तेज थी बालू तप रही थी जाना शायद सरल हो लेकिन ऊपर चढना आसान नहीं होगा।
थोड़ा आराम तो क्या करते आने वालों से मिलने की हुलस ने नींद कहाँ आने दी। शाम पाँच बजे चाय पीकर हम नदी किनारे पहुँचे। ऊपर से जो नदी तट समतल दिख रहा था वह वास्तव में करीब छह आठ फीट नीचे था और वहाँ बालू की खड़ी दीवार सी थी। सावधानी से  नदी तक पहुँचे उसे प्रणाम करके उसमें उतरे। हिमालय से उतरी नदी इतनी दूर बहने पर भी बर्फ की ठंडक नहीं छोड़ पाई थी। दो मिनिट में ही पैर सुन्न हो गये लेकिन उससे बाहर आने का मन नहीं हो रहा था। मुँह हाथ धोकर डूबते सूरज को अर्ध्य दिया प्रणाम करके बाहर आये तब तक पैर जम चुके थे।
परिवार के सभी सदस्य आ चुके थे बातचीत हँसी फोटो का दौर चल रहा था। नदी किनारे बड़े पत्थर पर बैठें पानी में पैर डालें या बाहर रखें जैसी महत्वपूर्ण चर्चा चल रही थी। सूर्य अस्त नहीं हुआ था बस पहाड़ के पीछे चला गया था। वर पक्ष के मेहमान भी आ चुके थे वे भी नदी को प्रणाम करके फोटो खिंचवा रहे थे। पण्डित जी आरती की तैयारी में लगे थे। तेज हवा में दीपक की लौ का ठहरना मुश्किल था इसलिए रुई की बाती के साथ कपूर डाला गया था।
सब आरती के लिये इकठ्ठा होने लगे देखा वहाँ दो पण्डित जी हैं। ऊपर नजर दौड़ाई एक और रिजार्ट नजर आया। ओह अच्छा हमारे वाले पण्डित जी उधर हैं। हम अपनी चप्पलें छोड़ उधर भागे। मंत्र उच्चारण के साथ गंगा पूजन फिर आरती शुरू हुई। गंगा के प्रथम दर्शन के साथ ही मन में श्रद्धा उमड़ पड़ी थी। स्वर्ग से उतरी नदी पृथ्वी वासियों के पाप हरने के लिए। उन्हें अपने जल से तृप्त करने उनके लिए उपजाऊ मिट्टी लाकर उनकी क्षुधा शांत करने के लिए पहाड़ों को लाँघते पत्थरों पर उछलते अपने तन पर असंख्य चोटें सहते बह रही है। लोग उसका दोहन कर रहे हैं उसमें कचरा अपशिष्ट डाल रहे हैं लेकिन वह एक माँ की तरह अपने बच्चों की नादान हरकतों को नजरअंदाज कर बस बह रही है।
गंगा के सभी घाटों पर गंगा आरती कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए ही की जाती है। अद्भुत वातावरण था पहाड़ों पर ढलती सांझ की परछाई में गहन गंभीर होती गंगा के चमकीली बालू के तट पर देश के दूरदराज से आये लोग श्रद्धा से नतमस्तक होकर आरती में शामिल थे। बारी बारी से सभी दीपक लेकर आरती कर रहे थे और यह अवसर मिलने से अभिभूत थे।
आरती के बाद जिसकी इच्छा हो वह दीपदान कर सकता था पण्डित जी पत्तों के दोने में फूल और घी में डूबी बत्ती रखे हुए थे। जो चाहे दीपक ले ले और अपनी श्रद्धा अनुसार दक्षिणा दे दे।
हमने दीपक लिया खड़ी बालू पर गिरते फिसलते नीचे उतरे तेज हवा को हथेलियों से रोकते दीपक बाला और गंगा माँ को प्रणाम करके अपने बच्चों की खुशियों की कामना करते हुए उसे प्रवाहित कर दिया। दूर तक वह दीपक लहरों के साथ आगे बढ़ता रहा हम उसे देखते रहे चकित होते रहे। यह दीपक की जिजीविषा थी या माँ का प्यार जो हिचकोले खाते उस दीपक को संभाले हुए था ताकि वह अपनी शक्ति भर उजियारा करे और जीवंत रहे। चूँकि पहला दीपक हमारा था जो नजरों से ओझल होने तक टिमटिमा रहा था उसे देखते हम अग्नि और पानी की इस जुगलबंदी को उनकी एक दूसरे के प्रति सदाशयता को देख चमत्कृत थे।
अंधेरा हो चुका था इसलिए सभी ऊपर आ गये।

#ऋषिकेश

#गंगा_आरती

Thursday, September 26, 2024

अनजान हमसफर

 इंदौर से खरगोन अब तो आदत सी हो गई है आने जाने की। बस जो अच्छा नहीं लगता वह है जाने की तैयारी करना। सब्जी फल दूध खत्म करो या साथ लेकर जाओ। गैस खिड़कियाँ बंद करो इतना सारा सामान गाड़ी में रखो लेकिन क्या करें करना ही पड़ता है। उसके बाद हाईवे पर जो अदूरदर्शिता के चलते खोदकर रखा है पुल बनाने के लिए वह रास्ता गुस्सा दिलाता है। एक बार महू पार कर लिया और मिलिट्री एरिया में आ गये फिर तो बस आनंद का सफर होता है और इसमें लगभग एक घंटा लग जाता है। अब ध्यान जाता है आगे पीछे चलने वाली गाड़ियों पर सवारियों पर आसपास के खेत खलिहान कच्चे पक्के घरों पर जंगल और घुमावदार रास्तों पर।

आज ऐसे ही रास्ते पर एक बाइक पर नजर गई। तीन सवारियाँ दो लड़के उनके पीछे एक दुबली पतली छोटी सी लड़की उसकी गोद में एक बच्चा दो तीन बैग। दो तीन बार वह बाइक क्रास हुई और हर बार उस पर नजर गई।

अधिकतर मैं अकेले गाड़ी चलाना पसंद करती हूँ मैं और मेरी तन्हाई मेरा रेडियो मेरे गाने। गाड़ी में या तो ऐसा साथ हो जिससे बातचीत का आनंद हो या चुपचाप चलें या फिर अकेले हों। मन में आया इस लड़की को गाड़ी में बैठा लूँ तब तक वह गाड़ी आगे बढ़ गई।

जाम घाट पर पार्वती मंदिर के आगे रास्ते पर बादल उतरे थे। इतना घना व्हाइट आउट कि दस मीटर आगे भी न दिखे। अरे आज फिर! यही कहा मन ने। मैंने गाड़ी धीमी की मोबाइल में वीडियो आॅन किया और एक हाथ में मोबाइल थामे वीडियो बनाते धीरे-धीरे जाम गेट की तरफ बढी। रेयर व्यू में देखा वह बाइक मेरे पीछे हो गई। सुरक्षा के हिसाब से यह अच्छा था। घने बादल के बीच रास्ता किस तरफ मुड़ रहा है यह भी नहीं दिख रहा था। लग रहा था आगे बारिश होगी। 

जाम गेट पर कुछ दिखने लगा और वह गाड़ी अब बगल से आगे निकलने को हुई तभी मैंने कार का शीशा नीचे करके उसे हाथ दिया।

कहाँ जा रहे हो? इसे गाड़ी में बैठा दो।

हम भी खरगोन जा रहे हैं। गुड़िया भी है साथ में।

हाँ तभी तो कहा तुम तीन होते तो थोड़ी कहती। उन्होंने तुरंत उस लड़की और गुड़िया को गाड़ी में बिठाया एक बैग गाड़ी में रखा।

मंडलेश्वर में मिलना कहकर मैंने गाड़ी आगे बढा दी।

आज देवानंद का जन्मदिन है विविधभारती पर प्यारे गाने बजे और मैं साथ न गाऊँ कैसे संभव है। थोड़ी देर मुझे संकोच हुआ फिर सोचा गाड़ी मेरी है यार मैं चाहे जो करूँ 😜

खैर थोड़ा गाना थोड़ी बातचीत वह लड़की पास के गाँव की है शादी को तीन साल हुए ग्यारह महीने की बेटी है। खरगोन कालेज से एम काॅम कर रही है। कालेज जाती है सुबह दस बजे तक घर के काम हो जाते हैं और बच्ची को सब संभाल लेते हैं।

मंडलेश्वर में बाइक पीछे आती नहीं दिखी तो हम आगे बढ़ गये। अब वह थोड़ी बैचेन हुई। बार बार साइड मिरर में देखती।

मैंने कहा चिंता मत करो फोन नंबर याद है तो फोन कर दो। उसे अपना फोन दिया क्योंकि उसका फोन रिचार्ज नहीं था और बैग में था। फोन की घंटी गई किसी ने नहीं उठाया।

कोई बात नहीं गाड़ी चला रहे हैं आवाज नहीं आ रही होगी। जब देखेंगे फोन लगा लेंगे। गुड़िया उठ गई थी थोड़ा कुनमुनाई अचरज से मुझे देखा। धीरे से मेरा हाथ छुआ। सोकर उठी थी भूखी थी वह फीड करवाने लगी। मुझे याद आया कई बार बच्चों को बाइक से लेकर जाते थे कभी ऐसा भी होता कि गाड़ी रोकने के लिए सुरक्षित स्थान नहीं मिलता तब बाइक पर चलते हुए फीड करवाया है। 

कसरावद पार करके हम आगे बढ़ गये तब फोन आया। उन्हें बता दिया खरगोन में कहाँ आना है। कुछ खास समझ नहीं आया बोले हम वहाँ आकर फोन कर लेंगे।

खरगोन आ गया हम घर पहुंच गये। आज सुबह काॅफी नहीं पी थी मुझे काॅफी पीना था। वर्माजी डिब्बा भरकर रबड़ी लाये थे बोले उसे दे दूँ।

हाँ बिलकुल वह रास्ते में फीड करवा रही थी भूख लगी होगी।

उसने पहले गुड़िया को खिलाई थोड़ी खुद खाई तब तक फोन आ गया। और वे दोनों चले गये।

Sunday, September 15, 2024

शिवा बाबा

 

शिवा बाबा
बहुत दिनों से विचार चल रहा था शिवा बाबा जाना है लेकिन दो घंटे का रास्ता गर्मी उमस के चलते मैं ही जाना टालती रही। शुक्रवार फिर मन बना लेकिन शनिवार लोक अदालत है इसलिए नहीं जा पाये फिर तय हुआ रविवार को चलेंगे।
आज सुबह निकलना तो जल्दी था लेकिन कुछ रविवार का आलस कुछ काम निपटा लेने का लालच दस साढ़े दस बज ही गये। अच्छा यह था कि आज धूप नहीं थी। खरगोन से बिस्टान होते धूलकोट से तितरानिया पाडल्या होते बुरहानपुर जिले में प्रवेश किया। सड़क कुछ डामर की कुछ कांक्रीट की कुछ गढ्ढेदार। पूरा आदिवासी इलाका छोटे छोटे फलिए दूर दूर खेत में एक एक झोपड़े आसपास खेत और उसके बाद सागौन के जंगल। बारिश न बची धरती को हरियाली की चादर से ढंक दिया था। रास्ते पर इक्का दुक्का वाहन की आवाजाही। पूरी तरह एक अलग दुनिया। छोटे छोटे गाँव में दैनिक जरूरत के सामान की एक दो दुकानें इसके अलावा न कोई बाजार न बड़े भारी मकान।
बस चले जा रहे थे शिवा बाबा।
दो तीन जगह रास्ता पूछा लोगों ने बड़े उत्साह से बताया आखिर वे उनके भी पूज्य हैं। गाड़ी मंदिर के सामने रुकी तब भी अंदाजा नहीं था इतना विशाल भव्य लेकिन सरल सहज मंदिर होगा। सामने बड़ा सा प्रांगण जिसके दोनों तरफ पेड़ों की कतारें। उसे पार करके हम पहुँचे एक कुएं पर जो तिरपाल से ढँका था। पानी इतना कि दो हाथ रस्सी से निकल जाये और पानी ऐसा कि एसिड से धुला कांच भी शरमा जाये। स्टील की बाल्टी में भरे पानी की पारदर्शिता देखकर चौंक गये हम। कुएं में झांका तो आश्चर्य से मुँह खुला रह गया। इतना साफ शुद्ध जल।
वहाँ हाथ पैर धोकर पीछे बने एक हाॅल में बैठे। हाँ मंदिर बारह बजे से एक बजे तक बंद रहता है। करीब दस मिनट बाद मंदिर खुला और हम दर्शन के लिए पहुँचे। साफ सुथरे मंदिर में शिवा बाबा की छोटी सी पिंडी मंदिर में सिर्फ पुरुषों का प्रवेश। हमने बाहर से दर्शन किये और सिंदूर चढ़ाया। बगल में देवी जी का मंदिर था जिसमें दुर्गा काली और गौरी की प्रतिमा थीं। दोनों ही मंदिर दक्षिण भारतीय शैली में बने थे। गोपुरम मूर्ति मंदिर की पेंटिंग का काम दक्षिण भारतीय कारीगरों ने किया है।
इसके बाद हम पहुँचे मंदिर के विशेष आकर्षण केंद्र पर।
जी हाँ इस मंदिर में एक पत्थर है थोड़ा गोल चौकोर सा सामान्य सा दिखने वाला पत्थर लगभग चालीस पचास किलो का। इस पत्थर को उठाने के बाद आदमी सीधा नहीं हो पाता और आधा एक फीट उठाकर रख देता है। यही पत्थर ग्यारह लोग एक तर्जनी से उठा लेते हैं। जी हाँ ग्यारह लोग चाहिये और पत्थर उठाने के पहले शिवा बाबा का आव्हान करना चाहिए। अगर किसी के भी मन में यह अहंकार आया कि मैं उठा लूँगा फिर यह पत्थर नहीं उठता। अब ग्यारह लोग कहाँ से आएँ? मंदिर में दर्शन करने आये लोगों को आवाज दी कुछ मंदिर के सेवादार थे सबने एक साथ जयकारा लगाया तर्जनी ऊंगली आगे की ओर देखते ही देखते चालीस पचास किलो के पत्थर को कमर की ऊँचाई तक उठाकर नीचे रख दिया।
बाद में बातचीत में पता चला कि पहले इसे सात लोग उठा लेते थे। शायद अब धरती पर पाप का बोझ ज्यादा हो गया है इसलिए ग्यारह लोग लगते हैं।
शिवरात्रि पर यहाँ बड़ा मेला लगता है हालांकि उस समय पत्थर को एक जंगले में रखा जाता है बाहर नहीं निकालते।प्रांगण में एक बड़ी तुला रखी थी। मन्नत पूरी होने के बाद लोग तुलादान करते हैं।
दर्शन के बाद चाय नाश्ते का आग्रह किया गया। साथ ही जानकारी मिली कि रामदेवरा का जागरण था रात में और आज अभी उनका भण्डारा चल रहा है। साहब जमीन पर बैठकर प्रसाद ग्रहण करेंगे या नहीं पूछने में संकोच था। मैंने तुरंत समाधान किया कि चाय नाश्ता न बनाया जाये हम रामदेवरा जी का प्रसाद ग्रहण करेंगे। सुनकर ही सेवादार लोग इतने प्रसन्न हो गये कि तुरंत आयोजन स्थल पर इंतजाम के निर्देश दिए गये। हम उनके पीछे वहाँ पहुँचे।
एक चौकी पर रामदेवरा जी विराजित थे दर्शन करके अंदर के साफ सुथरे कमरे में बिछात बिछाई गई और भोजन परोसा। सब्जी पूरी सूजी का हलवा दाल चावल। सादा लेकिन स्वादिष्ट भोजन। हलवा खाने के पहले लगा कि खूब मीठा होगा लेकिन बिलकुल नापतौल से डली शक्कर न मीठा न फीका। पता चला कि आज पूरा गाँव इस आयोजन में शामिल है। आसपास रहने वाले भी आज गाँव आ गये हैं। भोजन भी सभी ने मिलकर बनाया है।
भोजन प्रसाद पाकर हम बैठे और ग्रामीणों ने अपनी बिजली की समस्या साझा की। अच्छा यह था कि उसका समाधान भी था। उसके लिए जरूरी निर्देश देकर हम वहाँ से विदा हुए।
#शिवाबाबा
#बुरहानपुर

Tuesday, May 21, 2024

पोस्ट आफिस

 

पोस्टआफिस 
आज पोस्ट आफिस जाने का काम पडा। घर के पास वाला पोस्ट आफिस बंद था एक मन हुआ कि वापस घर चला जाए लेकिन फिर सोचा थोड़ा दूर ही सही गाड़ी से जाना है चले ही जाती हूँ। गूगल पर रास्ता देखते वहाँ पहुँची नई बनी बिल्डिंग में साफ सुथरा आफिस उसमें व्हीलचेयर जाने के लिए बना रैंप। पार्किंग शेड हालांकि वह पर्याप्त न था फिर भी कुछ तो था जितनी जगह थी उस हिसाब से।
अंदर जाकर देखा तो एक काउंटर पर लंबी लाइन नजर आई आगे लगभग छह सात आदमी खड़े थे उनके पीछे दो बच्चे खड़े थे जिनकी उम्र लगभग दस ग्यारह साल होगी और वे आपस में धींगामस्ती करते अपनी बारी आने का इंतजार कर रहे थे। खैर मैं उनके पीछे जाकर खड़ी हो गई। अन्य काउंटर पर पोस्ट आफिस अकाउंट के काम हो रहे थे एक काउंटर जिस पर दिव्यांग लिखा था बंद था क्योंकि उस समय वहाँ कोई नहीं था।
मेरे आगे खड़े बच्चे के हाथ में दो तीन लिफाफे थे और दो सौ के नोट के साथ कुछ चिल्लर भी। वे आपस में धीरे धीरे बात करते कभी गले में हाथ डालकर लडियाते कभी लड़ते रूठते मनाते।
लाइन धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी तभी एक व्यक्ति एक डब्बा लेकर वहाँ आया लाइन को देखा और सामने काउंटर पर लाइन के बगल में जाकर खड़ा हो गया और डब्बा काउंटर पर रख दिया।
पूरी तरह सफेद बाल मूँछें बड़े से पेट पर उठंगी शर्ट पैंट और चप्पल पहने उसने एक दो बार आगे पीछे देखा और फिर अपना मोबाइल निकाल कर उसका कैमरा आॅन किया। काउंटर पर पैसों का लेनदेन चल रहा था उसने एक फोटो क्लिक की और फिर इधर-उधर देखा तो मुझे अपनी तरफ देखता पाया और जरा सकपका सा गया। फिर उसने कैमरा बंद करके किसी को फोन लगाया थोड़ी बहुत बातचीत करके फोन जेब के हवाले किया।
लाइन बहुत धीरे चल रही थी वह लगातार काउंटर के काम होते देख रहा था। तब तक मेरे पीछे और दो तीन लोग आकर खड़े हो गये।
तभी पीछे खड़े एक लड़के ने कहा एक्सक्यूज मी मैम मेरे पास कैश नहीं है आप मुझे 50 रुपये दे देंगी मैं आपके नंबर पर आनलाइन पेमेंट कर दूँगा।
दस सेकेंड लगे समझने में फिर मैंने कहा कि आनलाइन पेमेंट काउंटर पर कर दीजिए।
यहाँ आनलाइन की सुविधा नहीं है।
मैंने एक नजर काउंटर पर डाली वहाँ कोई क्यू आर कोड नहीं था। चूँकि मैं खुद आनलाइन ट्रांजेक्शन कम करती हूँ इसलिए उसकी बात गले नहीं उतरी और मैंने कहा ऐसे कैसे नहीं होगा आनलाइन ट्रांजेक्शन? यह सरकारी विभाग है केंद्र शासन का है आनलाइन सुविधा तो होना ही चाहिए। आप कहिये वे उपलब्ध करवाएंगे। नहीं तो आप काउंटर पर बैठे व्यक्ति के नंबर पर ट्रांजेक्शन करिये वह अपनी जेब से पैसे भर देगा।
कह तो दिया बाद में सोचती रही अगर कैश न होने से उसका काम नहीं हुआ तो क्या उसे पचास रुपये दे दूँ? फिर लगा क्या पता सच में पैसे नहीं हैं या फोन नंबर स्कैन करने के लिए झांसा है। क्या पता सच में कोई जरूरत मंद हो। तब तक उसने किसी को फोन लगाया और कहा कि आनलाइन पैसे दे सकते हैं क्या। वहाँ से जो भी कहा गया पर उसने अच्छा ठीक है कहते फोन बंद किया तो लगा हो जायेगा।


अब ध्यान फिर आगे गया।
जैसे ही सभी आदमी वहाँ से हटे और बच्चों का नंबर आया वह तुरंत डब्बा उठाकर आगे बढा और मैंने उसे टोक दिया। "भाईसाहब ये बच्चे और मैं आपके पहले से खड़े हैं आप लाइन में आइये।"
"मैं सीनियर सिटीजन हूँ"
यहाँ कहाँ लिखा है सीनियर सिटीजन के लिए अलग लाइन है? मैं भी लाइन में खड़ी हूँ महिलाओं की कोई अलग लाइन नहीं बनाई तो आप भी लाइन में आइये। ये बच्चों का नंबर है।
"सीनियर सिटीजन की कोई कद्र नहीं है मैं बता दूँ "वह कुछ अनाप-शनाप पर आया और मैंने ऊँगली उठाई
" जरा तमीज से "और वह चुप।
काउंटर पर बैठे व्यक्ति ने उससे कहा आप लाइन में आइये। बच्चों के जाने के बाद उसने कोई कोशिश नहीं की कि आगे बढ़े मैंने अपना काम किया और बाहर निकल गई।
गाड़ी में बैठकर खुद से बड़बड़ाई जब तक आदमी लाइन में थे तब तक सीनियर सिटीजन होना याद नहीं आया। हष्ट-पुष्ट इंसान दो छोटे बच्चों की बारी मारकर सीनियर सिटीजन होने का दंभ भर रहे हैं। वैसे निकलते हुए देख लिया था कि मेरे बाद उनका ही नंबर था।

Sunday, March 17, 2024

नर्मदे हर

 बेटियों की शादी के बाद से देव धोक लगातार चल रहा है। आते-जाते रास्ते में किसी मंदिर जाते न जाने कब किस किस के सामने बेटियों के सुंदर सुखद जीवन की प्रार्थना की याद ही नहीं। यह एक बहाना ही है कि फिर फिर उन देवस्थानों में जाएं और कृतज्ञता व्यक्त करें। इसी क्रम में आज नर्मदा स्नान का मुहूर्त निकला।

खरगोन आते-जाते हमेशा नर्मदा पार करते हैं। एक नदी जिसके दर्शन मात्र से पुण्य मिलता है। इस बार नर्मदा यात्रा के समय न स्वास्थ्य ठीक था और शादी की तैयारियों के कारण जाना संभव ही नहीं था।

शादियों के तीन महीने बाद तक न जाने कितनी बार नर्मदा पुल से गुजरे हर बार वादा किया माँ जल्दी ही आएंगे लेकिन जब तक वह न बुलाएं कैसे जाना होगा।

आज बुलावा आया तो शाम को निकल पड़े। स्नान करने के साथ मन में उछाह था दीपदान करने का। नर्मदा के विशाल विस्तार पर टिमटिमाते दीप मंथर गति से आगे बढ़ते हैं जिन्हें देखकर ही मन को सुख मिलता है। बस आजकल जिस तरह प्लास्टिक के दोने में रखकर दीप प्रवाहित करते हैं वह मुझे नहीं करना था। घर से घी में डूबी फूलबत्ती तो रख लीं लेकिन उन्हें जलाने के लिए आटे के दीपक नहीं बना पाए इसलिये जामुन के कुछ पत्ते तोड़कर रख लिये।

स्नान के लिए दो आप्शन थे एक महेश्वर का अथाह जल और दूसरा मंडलेश्वर का धीरे-धीरे ढलता किनारा। पिछली बार महेश्वर में स्नान करते जब पैर नीचे की सीढ़ी पर रखना चाहा वह अथाह तल की ओर चला गया और मैं बस डूबने लगी। मुझे संभालने में पतिदेव के भी पैर उखड़ गये और वे घबरा गये इसलिये आज जब लगभग अंधेरा हो चला था महेश्वर में स्नान करने की हिम्मत नहीं हुई। इसलिये रास्ता पूछते हम पहुँचे मंडन मुनि की नगरी मंडलेश्वर के घाट पर।

पत्थरों से बना घाट धीरे-धीरे पानी में उतरता है और जितनी गहराई तक जाना हो वहीं रुकने के लिए जमीन दे देता है। कमर से थोड़े ऊपर पानी में डुबकियाँ लगा लगाकर नहाए। पैरों के नीचे एक सुदृढ़ तल बड़ी आश्वस्ति था। नहाकर नदी को अर्ध्य दिया और बाहर निकले। कपड़े बदलने के लिए यूँ तो चेंजिंग रूम हैं लेकिन चूंकि अंधेरा था और तट बिलकुल खाली तो वहीं थोड़ी आड़ करके कपड़े बदले।

पूजा करके जामुन के पत्ते पर एक एक फूलबत्ती रखकर जलाई और नदी में प्रवाहित कर दी। हल्की-फुल्की बत्ती को पत्ते ने आसानी से वहन किया और नदी के मंधर बहाव के साथ दूर तक बहते चले गये। चूँकि रात नदी के तल पर फैल चुकी थी नावें बंद हो चुकी थीं और कोई स्नानार्थी नहीं थे इसलिए दीपों की इस यात्रा में कोई अवरोध नहीं था।

बस संतोष इस बात का था कि कुछ दिनों में पत्ते सड गल जाएंगे और बत्ती जलकर राख हो जाएगी और नदी में कोई प्रदूषण नहीं होगा।

बस इस तसल्ली के साथ नर्मदा स्नान पूर्ण हुआ।

हर हर नर्मदे

जिंदगी इक सफर है सुहाना

  खरगोन इंदौर के रास्ते में कुछ न कुछ ऐसा दिखता या होता ही है जो कभी मजेदार विचारणीय तो कभी हास्यापद होता है लेकिन एक ही ट्रिप में तीन चार ऐ...