Tuesday, November 4, 2025

अपने सारथी हम खुद

 


अपने सारथी हम खुद 

अगले दिन सुबह उठे तो कहीं जाने की हड़बड़ी नहीं थी। आज हमें उन्हीं जगह पर जाना था जहाँ अपनी गाड़ी से जाया जा सकता था। किस जगह जाना है कहाँ पहले उसके बाद क्या ये सब जानकारी निकाल ली गई थी। हमने थोड़ी देर अलसाते बिताई। दरअसल हम दशहरे के दिन पहुँचे थे रास्ते में हमें देवी विसर्जन के जुलुस दिखे थे जिनमें रामरज खेली जा रही थी। विसर्जन अभी तक जारी था। देर रात में दो तीन जुलुस निकले। हमारा रूम सड़क की तरफ था। मेरी नींद कच्ची है और ज्यादा थकान के कारण भी कई बार नींद नहीं आती। इसलिये हर बार जुलुस निकलता और मैं देखने उठ जाती। खिड़की से कुछ वीडियो बनाए। सामने भी एक होटल था उसके गेस्ट भी बाहर खड़े वीडियो बना रहे थे। तभी एक आदमी ने उनका हाथ पकड़ा और डाँस करने को कहा। उन्होंने भी पूरे मन से डाँस किया। छोटी जगहों की ये सरलता लुभा लेती है।


खैर सुबह कोई दस बजे होटल से निकले पहले जटाशंकर जाना था। जटाशंकर जहाँ शिव भस्मासुर से डरकर छुपे थे उन्होंने एक मगर का रूप लिया जहाँ चट्टानों के नीचे झरने के बीच 101 शिवलिंग हैं। गाड़ी जटाशंकर से करीब एक किलोमीटर दूर रोक दी। रास्ते में फूल प्रसाद की दुकानें थीं। वहीं एक गाइड मिला  सौ रुपये में जटाशंकर के बारे में सभी जानकारी देगा। गाइड भी सभी लोकल लड़के हैं इसलिए मन हो गया। पचमढ़ी मिलिट्री एरिया है इसलिए यहाँ बहुत व्यापार नहीं है सघन वन क्षेत्र है इसलिए कृषि नहीं होती। पर्यटन ही आजीविका का साधन है। जो हमारे लिए 100 रुपये हैं उनकी दिन की कमाई का बड़ा हिस्सा हो सकती है। जब स्थानीय लोग सीमित साधनों के साथ जीते हैं वहाँ उन्हें कुछ मिल जाये ये ध्यान जरूर रखती हूँ। आखिर होटल खाने पर हम हजारों रुपये खर्च करते हैं।

खैर गाइड को लेकर चले उसने कुछ चट्टानों के आकार कुछ बनी अधबनी मूर्तियाँ वगैरह दिखाईं जिनके बारे में न जानते तब भी ठीक ही था। चट्टानों के नीचे की वह गुफा आज भी वैसी ही है हाँ आने वाला रास्ता जरूर बदल सा गया है। अंदर चट्टान के नीचे झुककर जाना पड़ता है वहाँ पानी बहता रहता है। सूरज की रौशनी नहीं पहुँचती इसलिए फिसलन नहीं है।

बाहर आकर गाइड को पैसे देकर फ्री किया ताकि अब हम अपने तरीके से घूम सकें। यह स्थान अद्भुत है यहाँ आराम से दो घंटे बैठा जा सकता है बशर्ते शोर न हो जो असंभव है। 

सच कहूँ तो जटाशंकर घूमकर मन थोड़ा खिन्न हुआ। रास्ते के किनारे बहते झरने में गंदा पानी कचरा प्लास्टिक बोतलें पता नहीं कब लोग अपनी जिम्मेदारी समझेंगे। वापस गाड़ी तक पैदल आना अखर रहा था धूप तेज थी रास्ते के किनारे बहुत कम पेड़ थे। ऊँचे पहाड़ हालाँकि खूबसूरत हैं और उन पर घने पेड़ भी हैं जिन्हें देखते हम बढे चले जा रहे थे।

अब जिन स्थानों पर जाना था वे दूसरी ओर थे इसके लिए वापस शहर में जाना था। लेकिन इसके पहले एक जरूरी काम करना था वह है कुछ फोटो खींचना।

हाँ फोटो तो खींच ही रहे थे लेकिन कुछ बहुत बड़े बरगद के पेड़ दोनों दिन दिखाई दिये थे उनके विशाल तने लटकती जड़ें उनके बुजुर्ग होने की गवाही दे रहे थे। पता नहीं क्यों लेकिन ऐसे बड़े पेड़ मुझे बहुत आकर्षित करते हैं मन करता है उन्हें निहारती रहूँ उनकी छाँव में बैठूँ उन्हें महसूस करूँ लेकिन इतना समय कहाँ होता है? बस उन्हें देखते हैं उनके फोटो खींचते हैं मन में कामना करते हैं कि ये सुरक्षित रहें। पता नहीं कितने पेड़ों की फोटो हैं मेरे पास। रास्ते भर बस अरे देखो कितना बड़ा पेड़ कितना सुंदर पेड़ इसका आकार देखो कितना अच्छा छत्र है कितना बड़ा घेरा है बस यही तो देखती हूँ। मन तो होता है ऐसे सभी पेड़ों की फोटो लूँ लेकिन अगर ऐसा करने लगूँ तो दिन भर में दस किलोमीटर भी नहीं चल पाएंगे।

अच्छा ये है कि वर्माजी इस पागलपन में मेरा साथ देते हैं। वैसे सस्ता सौदा है कहीं कोई खरीदी तो नहीं कर रही सिर्फ गाड़ी रोककर पेड़ों की फोटो ही तो ले रही हूँ।

तो अगला पड़ाव उन विशाल बरगदों की फोटो लेना था। उसके बाद जब वापसी हुई तब भी कुछ पेड़ों की फोटो लीं गाड़ी रुकवाकर उतर कर। एक गाँव में एक बहुत विशाल पेड़ दिखा वहाँ एक युवक पूजा कर रहा था उससे पूछा "कितना पुराना पेड़ है ये।"

बोला "पता नहीं होगा सौ साल पुराना"

पेड़ बहुत बड़ा था मैंने कहा "नहीं उससे ज्यादा पुराना है गाँव के बड़े लोगों से पूछा नहीं कभी?"

कहने लगा नहीं पूछा होगा हजार साल पुराना।

सौ से सीधा हजार।

जैसे विधायक सांसद के भत्तों की बात हो रही है।

खैर सबको पेड़ों में रुचि थोड़ी होती है मुझे है और मैं आपको दिखा रही हूँ आप भी देखिये।

जटाशंकर उस दिशा का अकेला दर्शनीय स्थल है अन्य जगहों पर जाने के लिए फिर शहर होकर जाना था। बीच में हमारा होटल दिखा तो हम रूम में चले गए। थोड़ी देर सुस्ताए गर्मी ने हालत खराब कर दी थी।

अभी भी हमारे पास लंबी लिस्ट थी बहुत मन नहीं था कहीं जाने का लेकिन बस आज का दिन ही है अगले दिन वापस निकलना है।

हम निकल पड़े प्रियदर्शिनी पाइंट जाने के लिए। शहर से दूर घने जंगलों के रास्ते ने फिर मन खींच लिया। गाड़ी के शीशे खोल लिये हवा ठंडी थी और भली लग रही थी। सड़क किनारे गाड़ियाँ खड़ी थीं हम भी रुक गये। बाँयी ओर दस पंद्रह फीट की पहाड़ी पर चढ़ कर रास्ता था। आवाजाही के कारण ही शायद वहाँ रास्ते में ज्यादा पेड़ नहीं थे जबकि आसपास घना जंगल था। चारों ओर शांति थी। चलते चलते हम पहाड़ के मुहाने पर पहुँच गये। वह पहाड़ी जो सड़क तरफ दस पन्द्रह फीट ऊँची थी मुहाने पर कई सौ फीट गहरी खाई के किनारे खत्म हो रही थी। किनारे पर रेलिंग लगी थी। वहाँ बंदर थे लेकिन उन्हें खाने को न दिया जाये के बोर्ड लगे थे।

गहरी खाई पूरी तरह हरे भरे पेड़ों से आच्छादित थी। नीचे ही कुछ और छोटे पहाड़ दिख रहे थे और उनके परे दिख रही थी सतपुड़ा की दूसरी सबसे ऊँची चोटी चौरागढ़।

कहते हैं भस्मासुर से बचने के लिए भागते हुए शिव इस पहाड़ पर गये थे और उनका त्रिशूल यहाँ छूट गया था। इस पहाड़ पर शिवमंदिर तक श्रद्धालु पैदल जाते हैं और त्रिशूल चढ़ाते हैं। इसके शीर्ष की चढ़ाई खड़ी है और कठिन भी। हमने यहीं से हाथ जोड़ लिये। बहुत पहले जब पचमढ़ी गये थे तब चौरागढ़ भी चढ़े थे लेकिन इस बार एक तो समय नहीं था दूसरे हिम्मत भी नहीं जुट रही थी।

यहाँ एक ईको पाइंट भी है हमें लगा वह यही पाइंट है। हमने जोर से आवाज लगाई लेकिन न हमारी आवाज चौरागढ़ पहुँची और न वापस आई। तभी किसी ने बताया कि ईको पाइंट आगे है।

आगे बढ़ने के पहले वहीं लगी छोटी सी दुकान पर नींबू पानी पीने चले गये। चालीस बयालीस साल की वह औरत अपने बेटे के साथ दुकान चला रही थी। उससे पूछा "पानी कहाँ से लाते हो?" 

"पचमढ़ी से यहाँ तो पानी है नहीं। नीचे नदी है लेकिन वहाँ जाना आसान नहीं है।"

"रोज सारा सामान पचमढ़ी से लाते हो?" मैंने आश्चर्य से पूछा क्योंकि गाड़ी से यहाँ तक आने में हमें 15-20 मिनट लगे थे।

 "हाँ पचमढ़ी से लाते हैं।" 

"बेटा स्कूल नहीं जाता?"

"नहीं जाता इस साल छोड़ दिया। कहता है बस नहीं जाना।"

"अरे क्यों?" अफसोस तो होता है। शायद वह पढ़ाई की महत्ता नहीं समझ रहा है लेकिन माता-पिता तो समझा सकते हैं।

"अब नहीं पढ़ना तो क्या करें वैसे भी नौकरी तो है नहीं धंधा करना है तो अभी से सीख ले। पचमढ़ी में कोई काम नहीं है नौकरी नहीं है खेतीबाड़ी नहीं है बस ऐसे ही छोटी बड़ी दुकान ही चला सकते हैं।"

उसका लड़का बेजार सा अपने लिए भेल बना रहा था। भेल बनाकर दोने में लेकर वह खाने बैठ गया।

एक टेबल दो तीन कुर्सियाँ स्टूल पानी के डब्बे। थोड़ा आगे एक और दुकान थी जो शायद उसके पति या रिश्तेदार की होगी। पूछना तो चाहती थी कि कितना कमा लेती हो लेकिन नहीं पूछा। पूछना तो यह भी था कि यहाँ दुकान लगाने की परमिशन लेना पड़ती है या नहीं और हाँ तो कितना पैसा लगता है? लेकिन कुछ बातें न पूछना ही ठीक होता है।

नींबू पानी पीकर हम ईको पाइंट की खोज में आगे बढ़ने लगे।

ईको पाइंट जहाँ पहाड़ इतने पास या आमने सामने हों कि आपकी आवाज सामने पहाड़ से टकराकर वापस लौट आये। हम सोच रहे थे कि आवाज चौरागढ़ से टकरा कर वापस आयेगी लेकिन चौरागढ़ बहुत दूर था। फिर ईको पाइंट कहाँ है? हम आगे बढ़ते गये जंगल घना होता गया बहुत शांत जंगल था क्या पता जंगली जानवर भी हों। पहाड़ के किनारे रेलिंग लगी थी जो बता रही थी कि आगे तक जाना हैं और रास्ता बना है तो सुरक्षित भी होगा।

हम चलते गये वहाँ तक जहाँ रास्ता (पगडंडी) खत्म हो गई लेकिन रेलिंग चल रही थी। हम पथरीले रास्ते से नीचे उतरे फिर ऊपर चढे़ और उसी पहाड़ के मुहाने तक आ गये जहाँ से एक दूसरा पहाड़ काफी पास था। चौरागढ़ यहाँ से भी दिख रहा था लेकिन काफी दूर हो गया था। हमने जोर से सीटी बजाई फिर आवाज लगाई पास वाले उस पहाड़ से टकराकर वे वापस आईं। यहाँ से घाटी का विस्तृत नजारा दिख रहा था। मध्यप्रदेश में इतने घने जंगल हैं ये देखकर मन को सुकून मिल रहा था। इस जंगल में कोई रास्ता कोई पगडंडी नहीं दिख रही थी क्या पता हो। क्या कभी कोई इन जंगलों में जाता होगा? मन में प्रश्न उठा। कोई जाता तो शायद ये जंगल इतने घने न होते या शायद वे लोग जाते हैं जो इन वनों का महत्व समझते हैं उन्हें पूजते हैं।


ईको पाइंट प्रियदर्शिनी पाइंट से लौटने का मन तो न था लेकिन यह आज का दूसरा ही पाइंट था अभी तो बहुत कुछ बाकी है इसलिए वापस लौटे। नींबू पानी वाली अब खाली बैठी थी। 

अगला पडाव था गुप्त महादेव।

भस्मासुर से बचते हुए शिव जी इस सँकरी सी गुफा में भी छुपे थे। यह इतनी सँकरी है कि इसमें कई जगह आडे होकर चलना पड़ता है। अंदर जमीन पर शिवलिंग है। अगर भीड़ ज्यादा होती है तो कभी-कभी साँस लेने मे दिक्कत होती है। गाड़ी पार्क करके पैदल मंदिर तक पहुँचे। एक तरफ पहाड़ दूसरी तरफ नदी बह रही थी। लाइन लंबी थी सब शांति से अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे हम भी लाइन में लग गये।

यहाँ से आगे चौरागढ का रास्ता जाता है। उस रास्ते पर लोग चले जा रहे थे कुछ नंगे पैर थे कुछ अकेले कुछ समूह में। बगल में घने पेड़ थे उस पर एक जंगली गिलहरी उछलकूद कर रही थी। उसका आकार खरगोश जैसा था बहुत बड़ी लंबी रोयेंदार पूँछ थी रंग गहरा भूरा लाल था। मैंने अमेरिका में बड़ी गिलहरी देखी थीं ये उससे भी बड़ी थी।

आगे लगे हुए लोग अंदाजा लगा रहे थे कि कितने लोगों के बाद हमारा नंबर आयेगा। वहाँ बोर्ड लगा था एक बार में आठ से ज्यादा लोग अंदर न जाएँ। अंदर दो लोगों को अगल बगल से निकलने की जगह नहीं है इसलिए कुछ लोगों ने कहा सिर्फ चार लोग अंदर जाएंगे। हम दोनों के पीछे एक युवा दंपत्ति थे और हम चारों को साथ जाना था।

गुफा के बीच में बिलकुल अंधेरा हो जाता है। पहले इसका फर्श भी उबड खाबड़ था इसलिये मैंने आगे जाना ठीक समझा। लेकिन अब फर्श समतल कर दिया गया है। बमुश्किल एक मिनट में अंदर पहुँचे दर्शन किए और वापस आ गये।

लौटते में रास्ते में बैठे आदिवासियों से सूखे बेर के लब्दो लिए। एक आदमी बड़ा सा कंद लेकर बैठा था। पता चला राम कंद है बहुत ठंडा होता है। एक चपाती बराबर गोल कंद की पतली सी स्लाइस पचास रुपये की। अब दुबारा आकर खाना तो बहुत मँहगा पड़ता इसलिए दो स्लाइस ले लिये। वह बिलकुल बेस्वाद था। न मीठा न खट्टा लेकिन बिना खाए पता कैसे चलता। 

यहीं बड़े महादेव का मंदिर भी है। वह थोड़ा आगे था लेकिन अब हम थक गये थे इसलिए पार्किंग में गाड़ी तक जाकर 

बड़े महादेव को बाहर से प्रणाम करके हम निकल गये। गर्मी तेज थी उमस काफी थी क्योंकि हम बहुत नीचे उतर गये थे। वापसी में जब पहाड़ चढे तो थोड़ी राहत मिली। अगला पड़ाव हांडी खोह था लेकिन अब वहाँ जाने की हिम्मत नहीं थी। 

हांडी खोह दो पहाड़ों के मिलने के बीच बनी गहरी खाई है। यहाँ घने पेड़ हैं और इतनी गहरी है कि इसका तल दिखाई नहीं देता। यहाँ कई औषधीय पेड़ हैं। आदिवासी इस खाई में उतर कर शहद इकठ्ठा करते हैं। उसे छोड़ना अच्छा तो नहीं लगा लेकिन घूमना मतलब भागना दौड़ना ही नहीं होता।

शाम होने को थी हमें राजेन्द्र गिरी जाना था। उम्मीद थी कि आज सनसेट दिख जाये। प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी ने इस पहाड़ पर बरगद का पेड़ लगाया था इसलिए इस जगह का नाम राजेन्द्र गिरी है। वैसे ये आश्चर्य की बात है कि उस समय में राष्ट्रपति के नाम पर किसी स्थान का नाम है।

यहाँ बहुत बड़ा सुंदर बगीचा लगाया गया है जिसके बीच वह बरगद का पेड़ खड़ा है। हम वहाँ पहुँचे तब तक बादल हो गये थे। हवा बहुत ठंडी हो गई थी। यहाँ दो मुहाने हैं और दोनों जगह बहुत भीड़ थी। हम पीछे तरफ थोड़ी कम भीड़ वाले मुहाने पर चले गये।

रेलिंग के पास खड़े होकर लोग फोटो खिंचवा रहे थे। हम उन्हें देखते रहे। बादलों की चादर घनी होती जा रही थी। बीच में हवा तेज होती तो एक उम्मीद सी बँधती कि शायद सूर्यास्त दिख जाये।

एक पेड़ पर बच्चे चढ रहे थे उनके फोटो खींचे जा रहे थे। एक 12-13 साल का बच्चा ऊपर चढ़ गया उसकी मम्मी ने फोटो खींच लिये लेकिन उससे उतरते नहीं बन रहा था। 'ये आजकल के बच्चे' अब मन में ऐसा सोचना अपराध तो नहीं है ना।

जगह खाली हुई तो हमने भी कुछ फोटो वोटो खींचे। मन तो था थोड़ा ईश्टाल मारें लेकिन अंदर की झिझक ने ऐसा करने नहीं दिया। थोड़ी कोशिश की वो फोटो में देखिए।

हम फिर वहीं बैठ गये। वहाँ एक कपल सबके हटने का इंतजार कर रहा था। दुबली पतली लड़की स्लीवलेस गाउन में थी लड़का पैंट शर्ट टाई में। पता नहीं लोगों को कब समझ आयेगा कि लड़कियों को भी ठंड लगती है या ये बात कहने की हिम्मत लडकियाँ कब जुटा पाएंगी।

हम उनका फोटो शूट देखते रहे। मेरा ध्यान लड़की के चेहरे पर था जहाँ नपी तुली नकली मुस्कान थी। वह बस निर्देशों का पालन कर रही थी। लड़का भी बड़ी शांति से फोटो खिंचवा रहा था। न जाने क्यों शादी करने वाला उत्साह नहीं दिखा मुझे उनमें। ऐसा लगा जैसे बस एक रस्म निभा रहे हैं।

खैर ये मेरा वहम भी हो सकता है।

अंधेरा होने लगा था लोग जाने लगे थे। आंध्रप्रदेश से स्कूल के बच्चों का एक ग्रुप आया था वे पैदल ही वापस जा रहे थे।। वर्मा जी गाड़ी लेने गये तब तक मैंने सौ मीटर की वाक कर ली। हम जिस रास्ते से आये थे उसके अलावा एक और रास्ता था जहाँ से गाड़ियाँ आ जा रही थीं। हमने भी वही रास्ता पकड़ा। बच्चे उसी रास्ते पर थे। कहीं आसपास कोई तेंदुआ या भालू हुआ तो! बस ऐसे ही विचार आया। हालाँकि बोलने चलने की आवाज आ रही थी तो ऐसी संभावना कम थी।

ये छोटा रास्ता था हम जल्दी ही शहर पहुँच गये। रास्ते में झील पड़ी मुझे याद नहीं है पिछली बार हम कभी इस झील पर गये थे। वहाँ बोटिंग और वाटर स्पोर्ट्स थे। हमने गाड़ी धीमी की लेकिन वहाँ इस समय भी बहुत भीड़ थी।

अरे नहीं अब और कुछ नहीं बस आराम करेंगे अब। हम वापस होटल आ गये।

शाम को होटल आये तो थक चुके थे। आज का दिन अच्छा रहा। एक दो पाइंट छूटे लेकिन सब कुछ कहाँ देख पाते हैं। हमने जंगल घूमा जो बहुत सुंदर है जंगल की शांति घने पेड़ उनसे गुजरती हवा। ऐसी अनछुई प्रकृति के सानिध्य में पूरा दिन बिताया जो शहर में नहीं दिखती। सबसे अच्छी बात यह थी कि बहुत ज्यादा भीड़ या शोर नहीं मिला।

होटल आकर फ्रेश हुए और खाना खाने डाइनिंग हाॅल में आ गये। आज वहाँ अधिकतर नये लोग थे। हमारे साथ सफारी पर गये कपल जा चुके थे। आज माहौल अलग सा था शायद लोगों का औरा बदल गया था। एक विदेशी लड़की भी वहाँ थी वह फोन पर बात कर रही थी।

 अगले दिन सुबह नाश्ता करके हम निकल गये। एक मन हुआ पांडव गुफा तरफ जाकर नर्सरी से कुछ पौधे ले लें लेकिन घंटा भर टूट जाता इसलिए सीधे निकले।

आते समय शाम होने लगी थी इसलिए जंगल अलग दिख रहा था। अब दिन में जंगल अलग दिख रहा था। हमने गाड़ी की स्पीड धीमी रखी। रास्ते में कुछ बहुत बुजुर्ग पेड़ दिखे कुछ के फोटो लिये कुछ को बस आँखों में भर लिया।

एक इच्छा थी देनवा नदी के दर्शन की। पहले इसके लिए सड़क किनारे व्यू पाइंट बना था लेकिन अब सड़क अच्छी स्थिति में है गाड़ियों की गति बढ़ गई है ऐसे में रास्ते में रुकी गाड़ी गंभीर दुर्घटना का कारण बन सकती हैं इसलिए उस व्यू पाइंट को खत्म कर दिया। स्मृति में वह स्थान था जिसे पहचान कर हम रुक गये। नीचे लगभग छह-सात सौ फीट गहरी खाई में बहती देनवा नदी को देखा। नीचे उसका पाट काफी चौड़ा है बारिश के कारण पानी मटमैला था।

तभी बाइक पर एक आदिवासी जोड़ा रुका और खाई में देखने की कोशिश करने लगा। उसके पीछे से आती बस ने झटके से साइड होकर उसे बचाया। वह बाइक हमारे पास आकर रुकी। मैंने उससे कहा किनारे हो जाओ ये सफेद लाइन से बाहर गाड़ी रोको अभी वह बस तुम्हें टक्कर मार देती। उनका छोटा बच्चा सो रहा था इसलिए वे नीचे नहीं उतर पा रहे थे। मैंने उसका मोबाइल लेकर नीचे घाटी का फोटो खींचकर उसे दे दिया।

इसके आगे रास्ता मैदान की ओर उतर रहा था। पचमढ़ी सतपुड़ा की रानी पीछे छूटती जा रही थी लेकिन इस बार मन में दिमाग में वह और ज्यादा सघनता के साथ बस गई थी। हम वापस जा रहे थे फिर आने के लिए फिर छोड़ दिये गये कुछ और स्थान देखने के लिए। इस तसल्ली के साथ कि कहीं हमारे बच्चों को जीवन देने के लिए जंगल बाकी हैं।

इति


#पचमढ़ी

#pachmarhi

Monday, November 3, 2025

पर्वतों की रानी सतपुड़ा

 पचमढ़ी मध्यप्रदेश का एकमात्र हिल  स्टेशन है जो सतपुड़ा पर्वत पर स्थित है। यहीं सतपुड़ा की सबसे ऊँची चोटी है और भवानी प्रसाद मिश्र की प्रसिद्ध कविता 'सतपुड़ा के घने जंगल ऊँघते अनमने जंगल' को शब्दशः देखने महसूस करने का उत्तम स्थान। यहाँ जाने के लिए एकमात्र सड़क मार्ग है जहाँ बस टैक्सी या अगर बेहतरीन ड्राइवर हैं तो स्वयं की गाड़ी से जाया जा सकता है। 

हमने इंदौर से सुबह आठ बजे यात्रा शुरू की ताकि शाम होने तक पचमढ़ी पहुँच जाएं। रास्ता बढ़िया है मटकुली के बाद पहाड़ी रास्ता शुरू हो जाता है। शाम साढ़े चार बजे पहुँचे थोड़ी देर में अंधेरा हो जाता इसलिए बस आराम किया। 

पचमढ़ी में कुछ स्थानों पर अब सिर्फ़ सफारी जिप्सी से जाया जा सकता है जिसमें छह लोग जा सकते हैं। हमने शेयरिंग के लिए होटल में बोल दिया और एक कपल का साथ मिल गया। 

अगले दिन सुबह बादल उतर आये थे फिर हल्की बारिश होने लगी। खुली धूप में कैसे जाएंगे? लेकिन नाश्ता करने तक बारिश रुक गई हल्की धूप निकल आई। शेयरिंग जिप्सी में हम चार लोग निकले सबसे पहले पाण्डव गुफाएं देखने। एक पहाड़ी के अलग अलग स्तर पर बनी छोटी बड़ी पाँच गुफाएँ। वहाँ तक जाने के लिए पुरानी पत्थर की अनगढ़ सीढियाँ। धूप हो गई थी एक बार लगा इतनी सीढ़ियाँ नहीं चढ़ पाएंगे लेकिन ये क्या चढ़ गये। इन गुफाओं का पाण्डवों से कोई लेना देना नहीं है बस न जाने कैसे नाम पड़ गया। हाँ ये काफी पुरानी हैं और आश्चर्य चकित करती हैं। इसके सामने बेहद खूबसूरत गार्डन है जो ऊपर से देखने पर बहुत सुन्दर लगता है। 

पाण्डव गुफाओं के बाद अगला पड़ाव था बायसन लाॅज जो अब एक म्यूजियम में बदल चुका है। ब्रिटिश काल की यह इमारत अपने रंग रूप और परिसर के कारण बेहद आकर्षक है। यहाँ पचमढ़ी के दर्शनीय स्थल यहाँ के जनजातीय और वन्य जीवन आदि के कुछ चित्र कुछ मूर्ति आदि हैं। बढ़िया बात यह है कि यहाँ कोई टिकट नहीं है लेकिन यहाँ से बी फाल जाने के लिए परमिट बनवाना पड़ता है। हम तो चले गए म्यूजियम देखने और हमारे ड्राइवर लग गये लाइन में। हम घूमफिर कर वापस आ गये लेकिन वे लाइन में ही खड़े थे। हमने थोड़ा समय इधर-उधर काटा कुछ फोटो लीं।

पिछले आठ दस वर्षों में पर्यटन में बहुत बदलाव आया है अब वह उद्योग है। उद्योग है तो उसके कई नियम कायदे हैं । पचमढ़ी में अब हर दर्शनीय स्थल पर प्रायवेट गाड़ियाँ नहीं जा सकतीं। सिर्फ उन स्थलों पर जो आसान राह पर हैं वहीं आप अपनी गाड़ियों से जा सकते हैं। अन्य स्थानों पर फोर व्हील ड्राइव वाली जिप्सी ही चलती हैं चलाने वाले स्थानीय लोग ही होते हैं। इन गाड़ियों के मालिक वही लोग हैं लेकिन ये वन विभाग से अटैच्ड हैं और जरूरत के अनुसार वहाँ से बुकिंग के आधार पर भेजी जाती हैं। इनका किराया डिमांड सप्लाई के आधार पर हर दिन तय होता है जो तीन से पाँच हजार के बीच होता है। इन गाड़ियों में कौन जा रहा है उनकी जानकारी भी ली जाती है। अगर कोई अपनी गाड़ी से किसी ऐसे स्थान पर जाता है तो उसे एंट्री पाइंट पर गाड़ी रोककर पैदल जाना होता है जो लगभग तीन-चार किमी दूर होता है। जाते हुए तो लोग खुशी से चले जाते हैं लेकिन लौटते उनकी हालत खराब हो जाती है। लेकिन कोई भी तय सवारी के अलावा किसी को नहीं बैठा सकता वर्ना दो हजार का जुर्माना और एक हफ्ते के लिए गाड़ी बाहर कर दी जाती है। 

सुनने में ये परेशान करने वाला लग सकता है लेकिन इसका असर वहाँ देखने को मिलता है। ये जिप्सी तय स्थान पर ही रुकती हैं बीच में कोई नहीं रुकता जिससे जंगल साफ रहता है उसमें लोगों का शोर नहीं भरता। जंगल वन्य जीव और पक्षी सुरक्षित रहते हैं।

हाँ यहाँ भी जिप्सी के हार्न थोड़ा परेशान करते हैं लेकिन बिलकुल अंधे मोड़ और खड़ी चढ़ाई पर ये जरूरी भी होते हैं।

बायसन लाॅज देखने के बाद अगला पड़ाव था बी फाॅल। बी यानी मधुमक्खी जी हाँ यहाँ मधुमक्खी बहुत ज्यादा हैं इसीलिए जंगल में आग जलाना बीड़ी सिगरेट पीना निषेध है लेकिन पीने वाले पीते हैं उनमें फारेस्ट गार्ड भी होते हैं।

जिप्सी ने हमें फाल से लगभग दो सौ मीटर दूर उतारा। वापस आने का समय डेढ़ घंटे बाद का तय हुआ। पथरीले रास्ते सीढ़ियों से हम पहुँचे ऊपर वाली पहाड़ी नदी पर जो आगे जाकर लगभग चार सौ फीट नीचे गिरती है। इस नदी में इस समय तेज बहाव था क्योंकि इस बार बारिश अभी हो ही रही है। वहाँ बहुत लोग नहा रहे थे कुछ पानी में पैर डाले बैठे थे। किनारे के व्यू पाइंट से झरने की आवाज भर सुनाई दे रही थी। मैं चूँकि दस ग्यारह वर्ष पहले स्कूल के बच्चों की ट्रिप में आई थी इसलिए बहुत सारी यादें ताजा हो गईं।

"नीचे चलना है" पूछा था या कहा था या दोनों बात थीं। जवाब में पतिदेव थोड़ा हिचकिचाए। चार सौ मीटर नीचे।

"चलो न धीरे-धीरे पहुँच ही जाएंगे। जब इतनी दूर आये हैं तो थोड़ा और सही।" जवाब का इंतजार नहीं किया मैंने। हालाँकि थोड़ी आशंका थी मन में। बायपास के बाद ऐसी चढ़ाई मुश्किल तो नहीं होगी। लेकिन मैं भी तो चढ़ी थी और बहुत लोग आ जा रहे हैं। बच्चे बड़े बूढ़े हम भी आ जाएंगे।

धीरे-धीरे उतरना शुरू किया। ये क्या पहले जो प्राकृतिक सीढ़ियाँ थीं पत्थरों की जमावट उनके स्थान पर अब लाल पत्थरों की पक्की सीढ़ियाँ हैं। उन पर गिरे पत्ते पानी में गल गये थे इसलिए फिसलन हो सकती थी। चूँकि सतपुड़ा के ये पहाड़ ज्वालामुखी के लावे से ढँक कर कड़े मजबूत हो चुके हैं इसलिए इनमें ज्यादा तोड़ फोड़ कर छेड़छाड़ नहीं की गई है। इसलिये सीढ़ियाँ कम ज्यादा ऊँची थीं।

उतरते हुए बहुत थकान नहीं हुई लेकिन पसीने ने परेशान किया। बस पंद्रह मिनट लगे हमे नीचे पहुँचने में जबकि सीढ़ियों के कारण रास्ता कुछ ज्यादा लंबा हो गया है। हाँ उमस बहुत ज्यादा थी क्योंकि पहाड़ काफी नजदीक थे आसपास घने पेड़ नमी। जब नीचे पहुँचे विशाल खूबसूरत प्रपात पानी की बारीक बूँदों को उड़ाकर न नहाने वालों को भी सराबोर कर रहा था।

नीचे गीले पत्थरों की उबड़ खाबड़ जमावट खतरनाक थी। जरा पैर फिसला और चोट लगना तय था। पानी के पास जाने में कोई समझदारी नहीं थी क्योंकि हमें नहाना नहीं था। न हम कपड़े लाये थे न विचार था। हमने कुछ फोटो लिये और वापस ऊपर जाने लगे। तय किया कि ऊपर पानी में पैर डालकर बैठेंगे। हमने समय देखा और चढना शुरू किया। जानना था ऊपर पहुँचने में कितना समय लगा।

अब मन में उत्सुकता थी कि ऊपर कितनी देर में चढ़ पाएंगे। रास्ते में बहुत भीड़ थी इसलिए तेज तो चला नहीं जा सकता था। उमस पसीना भी परेशान कर रहा था। हमारे पास पानी की बोतल थी लेकिन हम बहुत संभलकर एक एक घूँट पानी पी रहे थे। ज्यादा पानी पीने से पेट में वजन हो जाता है जिसे ऊपर चढ़ते उठाने में दिक्कत आती है। यह मैंने शिलांग में लाइव रूट ब्रिज पर चढ़ते हुए जाना। 

लगभग बीस मिनट में हम ऊपर थे। अब प्यास भी लगी थी और पसीना काफी निकल चुका था इसलिए थोड़ा नमक थोड़ी शक्कर लेना जरूरी था। हमने नींबू पानी पिया। अच्छी बात यह थी कि यहाँ डिस्पोजेबल ग्लास नहीं थे इसलिए कचरा नहीं था। आसपास मधुमक्खियाँ उड़ रही थीं।

हम लोग झरने वाली नदी के किनारे आ गये जूते उतार कर पानी में पैर डाला ही था कि पतिदेव ने एकदम झटके से पैर बाहर निकाला।

"मछलियाँ काट रही हैं।"

"अरे ऐसे कैसे?" मैंने भी पानी में पैर डाले और कुछ ही सेकेंड में पैरों में गुदगुदी सी होने लगी। तीन-चार छोटी छोटी मछलियाँ पैरों की चमड़ी खा रही थीं।

"अरे ये तो फिश पेडीक्योर है" बहुत पहले इसके बारे में पढ़ा था। "पैर पानी में करे रहो लोग इसके लिए हजारों रुपये देते हैं यहाँ फ्री में हो रहा है।"

पसीने से पैरों की त्वचा फूल गई थी और मछलियों की दावत हो रही थी। अहा कितना अच्छा लग रहा है। कभी-कभी छह सात मछलियाँ आ जातीं और हमें पैर झटककर बाहर निकालने पड़ते।

हम लगभग घंटे भर पेडीक्योर करवाते रहे। हमारा जाने का समय हो गया था पैर बाहर निकाले तो महसूस हुआ कि पैर कितने मुलायम और चिकने हो गये हैं। क्या सच में इतनी डेड स्किन होती है? पता नहीं लेकिन पैर सच में बहुत अच्छे हो गये।

हमने जूते पहने और पार्किंग तक गये। वहाँ बहुत सारे फारेस्ट गार्ड थे कुछ जिप्सी में साथ आये थे कुछ वहीं ड्यूटी पर थे। वहाँ तकरीबन दो सौ गाड़ियाँ थीं उनमें अपनी गाड़ी नंबर से पहचानना कठिन था लेकिन तभी हमारे ड्राइवर ने हमें देख लिया और हाथ हिलाकर आवाज लगाई।

हम तो पहुँच गये थे लेकिन हमारे सहयात्री अभी तक नहीं आये थे। अब फाॅल से लौटने वाले अपनी जिप्सी ढूँढकर उसमें बैठकर जाने लगे थे। कई लोग पैदल जा रहे थे उनकी गाड़ी गेट के बाहर करीब तीन किमी दूर खड़ी थी। वे बुरी तरह थके हुए थे कुछ गीले कपड़ों में थे। निश्चित ही उन्हें नहीं पता था कि यहाँ क्या मिलने वाला है वे बस आ गये थे और इतना सुंदर प्रपात निर्मल पानी देखकर खुद को रोक नहीं पाये। वे वहाँ से कोई सवारी देख रहे थे जो उन्हें गेट पर उनकी गाड़ी तक छोड़ दे लेकिन कोई इसके लिए तैयार नहीं था। ड्राइवर ने कहा इस समय ये दो हजार रुपये तक देने को तैयार हैं लेकिन दिन भर के लिए चार हजार देने में कंजूसी करते हैं। अब इस बात पर क्या ही कहा जाये। जो अपनी गाड़ी से आते हैं वे अलग से गाड़ी के लिए हजारों रुपये क्यों दें और उन्हें पता भी कहाँ होता है कि कैसी जगह है कितनी दूर पैदल चलना होगा कैसा रास्ता होगा कितनी चढ़ाई होगी। वे बस चले जा रहे थे।

ड्राइवर ने बताया वह पहले ट्रक चलाता था फिर बस चलाने लगा अभी सात आठ साल से अपनी गाड़ी ले ली। अब बच्चे कहते हैं यहीं रहो बाहर मत जाओ। उसके घर उसी दिन पोती का जन्म हुआ था और वह गाड़ी चला रहा था।

हम गाड़ी में बैठकर इंतजार कर रहे थे पर्यटक अभी भी आते जा रहे थे। पैदल जाने वालों को देखते मेरे मन में भी पैदल चलने की इच्छा होने लगी। आधा घंटा हो गया था इंतजार करते मुझे लगा अगर अभी पैदल चलना शुरू करूँगी दस पंद्रह मिनट में वे लोग आ ही जाएंगे। मैं भी आधा पौन किमी चल लूँगी। पतिदेव का मन नहीं था रास्ता बस एक था सिर्फ जंगल और इतनी गाड़ियों की आवाजाही के बीच भालू के आने की संभावना नहीं के बराबर थी।

मैं चल पड़ी बस एक मोबाइल लेकर जिसमें नेटवर्क नहीं था। करीब दो सौ मीटर तक सड़क के किनारे जिप्सी खड़ी थीं उसके बाद बस जंगल और मैं। अहा क्या अद्भुत क्षण थे हरे भरे घने पेड़ लाल मिट्टी कहीं किसी मोड़ पर मिल जाता बहता पानी। लगातार ऊपर चढ़ती इस सड़क पर धूप छाँव के बीच मैं चलती जा रही थी।

वैसे तो वहाँ किसी का कोई डर नहीं था लेकिन लगातार लोगों के बीच शहरी शोरगुल के बीच रहने के कारण यह शांति भली लगते हुए भी सहज नहीं होने दे रही थी। मैं पचमढ़ी और अब इस एकांतिक ट्रेकिंग पर इसी शांति और जंगल को महसूस करने ही तो आई थी लेकिन फिर क्यों बार बार पीछे मुड़कर देख रही थी? मन में ख्याल था कि गाड़ी तो नहीं आ रही है फिर ख्याल आता अभी न आये थोड़ा और चल लूँ।

शहरों में पैदल चलना छूट गया। इंदौर में सड़क किनारे घूमने में कभी सहजता महसूस नहीं होती। आसपास के पार्क में अब इतनी जगह ही नहीं है कि घूम सकें।

तभी चार पाँच लड़के दिखे। उनकी गाड़ी भी शायद गेट के बाहर होगी। वे बातें हँसी मजाक करते पैदल चलते हुए सड़क से उतर कर जंगल की पगडंडी से ऊपर की सड़क पर चले जाते। रोमांचक तो था लेकिन मैं जो कर रही थी वह भी अपने आप में काफी रोमांचक था। आडे टेढ़े रास्ते पर जाकर पैर मोचाने का रिस्क लेना ठीक नहीं है। फिर वे जवान लड़के हैं और मुझे अपनी उम्र पता है। हम आगे पीछे चलते रहे।

करीब डेढ़ दो किमी बाद वह खड़ा तीखा मोड़ आया और मुझे याद आया कि जब स्कूल के बच्चों के साथ आये थे तब हम यहाँ काफी देर रुके थे। वे लड़के एक मोड़ पीछे रुक गये थे मैं ऊपर थोड़ी देर रुकी कुछ फोटो लिये तब तक वे लोग भी आ गये।

अब तो काफी देर हो चुकी थी। थकान तो नहीं थी लेकिन पतिदेव जरूर चिंता कर रहे होंगे उनकी इस चिंता की चिंता मुझे होने लगी। पता नहीं साथ वाले आये या नहीं। पतिदेव बीच में फँस गये अब न गाड़ी छोड़कर पैदल आ सकते हैं न वहाँ रुक पा रहे होंगे ।अब तो एंट्री पाइंट भी आने वाला होगा। वे लड़के आगे निकल गये मैं थोड़ा धीरे धीरे चलती रही तभी पीछे से हार्न सुनाई दिया। पीछे मुड़कर देखा जिप्सी की गति धीमी हो गई थी।

अहा सारी चिंता दुश्चिंता विचारों से मुक्ति। मैं गाड़ी में बैठ गई। सहयात्री ने मुझे पानी दिया। हम आगे बढ़े। वे लड़के दिखाई दिये। मैंने उन्हें देखकर हाथ हिलाया जोर से कहा "थैंक्यू"

क्या पता आगे जाकर वे देखते कि मैं पीछे नहीं आ रही हूँ और सोचते कि कहीं कुछ हो तो नहीं गया? वैसे मैं उनकी जिम्मेदारी नहीं थी लेकिन मुझे पता था कि उन्हें पता है कि मैं अकेली जा रही थी इसलिए उन्हें ये बताना कि मैं गाड़ी में चली गई हूँ ठीक लगा।

ड्राइवर ने कहा "आप तो बहुत चल लीं।"

इससे अच्छा पुरस्कार इस हिम्मत के लिए और क्या होगा?


अगला पड़ाव था लंच के लिए किसी रेस्टोरेंट में जाना। जिप्सी ड्राइवर के पास दो तीन आप्शन होते हैं। यहाँ खाएंगे वेज है या

किस्मत से हमारे साथ वाले भी वेजिटेरियन थे हमने एक रेस्तरां को मना किया क्योंकि वहाँ वेज नानवेज दोनों थे लेकिन अगला शुद्ध शाकाहारी देखकर वहीं रुक गये। ड्राइवर से खाने का पूछा तो वह बोले मैं यहीं स्टाफ के साथ खा लूँगा। वैसे भी पर्यटकों को लाने वाले ड्राइवर गाइड के लिए खाना मुफ्त होता है खरीद पर चालीस प्रतिशत तक कमीशन होता है और सब कुछ जानते हुए भी दुनिया का कारोबार यूँ ही चलता रहता है। रेस्तरां में बहुत भीड़ थी। एक हाॅल में आर्डर कर के खा सकते थे दूसरी तरफ था बुफे। 300 /-प्लेट। हालाँकि कीमत ज्यादा थी लेकिन आगे और दो पाइंट देखने थे इसलिए इंतजार करने का समय नहीं था। सीजन की भीड़ में सारा ध्यान बस खिलाने पर था बहुत बेसिक सा सेट अप साफ-सफाई बस उतनी जितने में खा सकें। हाँ खाने का स्वाद अच्छा था बिलकुल घर के खाने जैसा। दो सब्जी कढी दाल चावल सलाद पापड़ रोटी नान तंदूरी और खीर। बाहर एक पान की दुकान भी थी चालीस रुपये का एक पान। पिछली रात खाने के बाद टहलने गये थे तब पान खाया था और ज्यादा चूने ने मुँह खराब कर दिया था इसलिए बोलकर कम चूने वाला पान बनवाया।

धूप तेज थी सुबह से काफी दौड़ धूप हो चुकी थी खाने के बाद अब बस पसर जाने का मन था लेकिन धूपगढ़ सिर्फ जिप्सी से जाया जा सकता था इसलिए होटल नहीं जा सकते थे। अब पेट भरा तो थकावट भी चढ़ी और आलस भी। खैर हम पहुँचे रीछगढ़ या रिचगढ़।

अच्छा मजेदार बात है कि 75 साल बाद भी इसका एक नाम तय नहीं हुआ है। किसी स्थानीय ने रीछ देखा था इस गुफा में इसलिये यह रीछगढ़ है और दो बड़ी चट्टानें आपस में मिलकर एक रिज बनाती हैं इसलिए रिच गढ़ है।

वहाँ ऐसी भीड़ थी जैसे मुफ्त में जलेबियाँ बँट रही हों। ऊबड खाबड़ पत्थरों के बीच से बोलते बतियाते चीखते चिल्लाते हँसी मजाक करते लोग अपनी क्षमता अनुसार रास्ता ढूंढ कर नीचे उतर रहे थे। वह विशाल गुफा शोर से भरी हुई थी। कोई बगल में एक छोटी अंधेरी गुफा में जा रहा था तो कोई नीचे उतर कर पीछे के परकोटे में।

उतरना आसान नहीं था एक बार मन हुआ छोड़ दें फिर मन को समझाया आये हैं तो देखें तो कितना बदलाव हुआ है।

अच्छा लगा देखकर कि यह जगह बिलकुल भी नहीं बदली थी। पीछे दो चट्टानें वैसे ही माथा जोड़े न जाने क्या बातें कर रही थीं। सदियाँ बीत गईं उनकी बातें खत्म नहीं हुईं और लगता है अगली कई सदियों तक होंगी भी नहीं। लोग आते रहेंगे उनका पहनावा बातें रंग ढंग बदलते रहेंगे उनकी उत्सुकता के केंद्र बदलते रहेंगे और उन दोनों चट्टानों के पास उनके बारे में बातें करने का विषय रहेगा।

हमने कुछ फोटो लिये। इन चट्टानों के पीछे एक रास्ता है जो घने जंगल के अंदर जाता है। चालीस साल पहले भी वह रास्ता था और दस साल पहले जब गई थी तब भी। उस पर चलने की ललक तब भी थी आज भी लेकिन आज के लिए अकेले जंगल में जाने का कोटा पूरा हो चुका था। नहीं भी होता तो वहाँ जाना संभव नहीं होता। पता नहीं पतिदेव रोकते या अज्ञात के लिए मेरा खुद का डर बच्चों के लिए प्यार लेकिन उस रास्ते पर शायद कभी नहीं जा पाऊँगी।

वहाँ से ऊपर जाने का रास्ता काफी ऊँचा दिख रहा था। उस में समय लगता हम वापस चल पड़े। आधे रास्ते में सहयात्री नीचे उतरते दिखे यह तय था उन्हें फिर देर लगेगी जबकि इस बार ड्राइवर ने उन्हें जल्दी आने को बोल दिया था।

बाहर चाय पकौड़े की दुकान पर जबरदस्त भीड़ थी जबकि हमारा खाना गले में रखा था। हम आगे बढ़े रास्ते में एक पत्थर सिंहासन सा आभास दे रहा था। वहाँ रुके फोटो लिए तब तक कुछ और लोग लाइन लगाकर खड़े हो गये उन्हें भी फोटो लेना था। हम आगे बढ़े फिर एक जगह बैठ गये जब अभी जाना ही नहीं है तो गाड़ी में क्यों बैठें यहीं जंगल में क्यों न बैठे?

अगला पड़ाव था धूपगढ। वहाँ जाना रोमांचित कर रहा था। वैसे तो मैं पहले भी चार बार धूपगढ जा चुकी थी लेकिन वहाँ जाने का पहला अनुभव आज भी रोमांचित करता है।

धूपगढ सतपुड़ा की सबसे ऊँची चोटी है जहाँ से सूर्यास्त देखना अद्भुत होता है और इतनी खतरनाक चढ़ाई लोग इसे देखने के लिए करते हैं। अब यहाँ प्रायवेट गाड़ियाँ बंद कर दी गई हैं लेकिन इक्कीस साल पहले जब हमने अपनी पहली गाड़ी मारूति वेन खरीदी थी और सबसे पहले पचमढ़ी घूमने गये थे उसकी यादें अब तक ताजा हैं ।

वह गैस कन्वर्टेड वेन थी जिसमें गैस सिलेंडर लगा था। पचमढ़ी आते हुए गाड़ी कहीं टकराई थी शायद लेकिन वह अच्छे से चल रही थी और हम पूरी पचमढ़ी घूम चुके थे। धूपगढ चढ़ते हुए जब खड़ी चढ़ाई पर गाड़ी आगे से ऊपर पीछे से नीचे हुई तो गैस की सप्लाई होना बंद हो गई। पतिदेव ने ब्रेक पर पूरी ताकत से पैर रखकर उसे पीछे लुढ़कने से रोका और बोले जल्दी नीचे उतरो और पहिये के पीछे पत्थर लगाओ। मैं नीचे उतरी और सड़क किनारे पड़ा पत्थर उठाकर लगाया फिर पतिदेव ने गाड़ी को रेस दी और दो तीन मीटर आगे बढ़ाया। वे फिर जोर से बोले फिर पत्थर लगाओ और मैंने दूसरा पत्थर उठाया दौड़ लगाई और फिर पत्थर लगाया। अब गाड़ी एक दो मीटर आगे बढ़ती मैं भागकर पत्थर लगाती खड़ी चढ़ाई पर भागते मैं हाँफने लगी।

पतिदेव ने गाड़ी को पेट्रोल पर किया लेकिन चूँकि गाड़ी गैस पर थी इसलिए बहुत थोड़ा सा पेट्रोल था जो टंकी में पीछे हो गया था और इंजन तक नहीं पहुँच पा रहा था। 

हमें थोड़ी देर हो गई थी इसलिए हमारे बाद नीचे से कोई गाड़ी नहीं आ रही थी बस यही अच्छा था। तभी मेरी नजर बगल में खाई पर पड़ी गहरी अंधेरी घाटी जिसका तल दिखाई नहीं दे रहा था। पतिदेव ने एक बार फिर कोशिश की और मुझसे कहा बैठो। मैं गाड़ी में बैठी गेट थोड़ा अटकाया न जाने कब फिर उतरना पडे। एक बार फिर भगवान का नाम लिया और मन में कहा 'भगवान जैसी आपकी मर्जी बस इतना करना कि बचें तो चारों मरे तो चारों। किसी को पीछे जीवन भर का दुख झेलने के लिए मत छोड़ना।'

इतनी देर में गाड़ी बमुश्किल बीस मीटर चली होगी। अब फिर गाड़ी को गैस पर करके पतिदेव ने गेयर लगाया और ये क्या गाड़ी दनदनाती हुई ऊपर चढ़ गई ऐसे जैसे उसमें कुछ हुआ ही नहीं था।

अब फिर उस रास्ते पर जाना उस दिन क्षण को साथ देखने का रोमांच था। सड़क बहुत अच्छी नहीं थी डामर रोड़ उखड़ी हुई थी और उसमें पैबल लगाने का काम चल रहा था जबकि पिछले चार बार यहाँ हमेशा डामर रोड़ ही थी।

ड्राइवर ने बताया कि यहाँ घने जंगल में नाग देवता का मंदिर है जहाँ हर नागपंचमी को मेला भरता है। करीब ढाई लाख लोग इस मेले में आते हैं। रास्ते में एक चट्टान दिखी जिस पर गणपति जी का आकार और झलक थी। इस चट्टान के नीचे देवता का मंदिर था और उसी के बगल से एक संकरा पैदल रास्ता। नागपंचमी पर धूपगढ जाने वाला रास्ता बंद कर दिया जाता है और यहाँ से लोग पैदल नाग मंदिर तक जाते हैं। दरअसल नाग देवता देश के ही नहीं दुनिया भर के आदिवासियों के देवता हैं और उनकी बहुत मान्यता है। दक्षिण अमेरिका में स्नैक किंगडम बहुत विशाल राज्य था।

ड्राइवर ने बताया कि जिस साल अच्छी बारिश होती है तभी मेला लगता है क्योंकि इतने लोगों के लिए पीने के पानी की व्यवस्था हो जाती है। जंगल में टेंकर ले जाना संभव नहीं है। फिर बारिश में सब गंदगी बह जाती है। हाँ बाजार और प्लास्टिक हर जगह पहुँच चुका है और जंगल के बीच से बारह किमी फिर सड़क से छह आठ किमी कचरा कौन ढोकर लायेगा। इसलिए कचरा नदियों के रास्ते फिर गाँव शहर में आ जाता है।

धूपगढ में पहाड़ के ऊपर काफी बड़ा समतल मैदान है जिसके एक ओर से सूर्योदय दिखता है दूसरी ओर से सूर्यास्त। वैसे आज कुछ नहीं दिखने वाला था क्योंकि बादल हो गये थे। हम पूर्व की ओर गये वहाँ से दूर चौरागढ दिखाई दे रहा था। वह सतपुड़ा की दूसरी सबसे ऊँची चोटी है। यहाँ विशाल शिव मंदिर है जहाँ त्रिशूल चढ़ाये जाते हैं। कहते हैं भस्मासुर को वरदान देने के बाद जब वह शिव को भस्म करने दौड़ा तब उससे बचने के लिए शिव इस पर्वत पर भी गये थे और उनका त्रिशूल वहाँ छूट गया था।

यहाँ से नीचे दूर दूर तक पहाड़ और घने जंगल दिख रहे थे। हम जहाँ खड़े थे वहीं बगल में एक और चट्टान थी जो लगभग पचास फीट ऊँची होगी।

हम पश्चिम की ओर जाने लगे यहाँ भी एक दुकान पर चाय पकौड़े बन रहे थे और लोगों की भीड़ लगी थी। पश्चिम में बैठने के लिए सीढ़ी बना दी हैं ताकि लोग बहुत किनारे न जाएँ और फोटो लेने के लिए धक्का मुक्की न हो। बादल घने हो गये थे अंधेरा छाने लगा था सूर्यास्त में अभी भी आधा घंटा था और लोग उम्मीद में बैठे थे कि शायद बादल छँट जाएं जिसकी कोई संभावना नहीं थी।

इस जगह पर आने की यादें फोटो लेकर संजोई जा रही थीं। हम लोगों को देखते रहे उनके उत्साह को जिसमें सूर्यास्त न दिखने का कोई मलाल नहीं था वह दिखे न दिखे होगा जरूर और अगले दिन सूर्य फिर उगेगा। यहाँ होना उनके लिए एक याद है उसे संजोना है।

हवा ठंडी हो चली थी उतरते हुए अंधेरा हो जायेगा। अब चलना चाहिए ताकि रास्ते के सौंदर्य को एक बार फिर रौशनी में निहार सकें। हमारे सहयात्री सामने ही दिख रहे थे उनसे कहा अब चलें वे भी तैयार हो गये।

रास्ते में एक दो फोटो खींचे ड्राइवर ने एक जगह गाड़ी रोककर छह सात पहाड़ों के पार वह स्थान दिखाया जहाँ मेला लगता है। गाड़ी लगातार चलती जा रही थी और हम सब गाड़ी में चुपचाप बैठे थे उस स्थान की सुंदरता को मन में बसाए दिमाग में उससे जुड़ी बातों को यादों के बक्से में जमाते हुए कुछ बहुत बहुमूल्य पीछे छोड़ आने की अकुलाहट लिये।












अपने सारथी हम खुद

  अपने सारथी हम खुद  अगले दिन सुबह उठे तो कहीं जाने की हड़बड़ी नहीं थी। आज हमें उन्हीं जगह पर जाना था जहाँ अपनी गाड़ी से जाया जा सकता था। कि...