अपने सारथी हम खुद
अगले दिन सुबह उठे तो कहीं जाने की हड़बड़ी नहीं थी। आज हमें उन्हीं जगह पर जाना था जहाँ अपनी गाड़ी से जाया जा सकता था। किस जगह जाना है कहाँ पहले उसके बाद क्या ये सब जानकारी निकाल ली गई थी। हमने थोड़ी देर अलसाते बिताई। दरअसल हम दशहरे के दिन पहुँचे थे रास्ते में हमें देवी विसर्जन के जुलुस दिखे थे जिनमें रामरज खेली जा रही थी। विसर्जन अभी तक जारी था। देर रात में दो तीन जुलुस निकले। हमारा रूम सड़क की तरफ था। मेरी नींद कच्ची है और ज्यादा थकान के कारण भी कई बार नींद नहीं आती। इसलिये हर बार जुलुस निकलता और मैं देखने उठ जाती। खिड़की से कुछ वीडियो बनाए। सामने भी एक होटल था उसके गेस्ट भी बाहर खड़े वीडियो बना रहे थे। तभी एक आदमी ने उनका हाथ पकड़ा और डाँस करने को कहा। उन्होंने भी पूरे मन से डाँस किया। छोटी जगहों की ये सरलता लुभा लेती है।
खैर सुबह कोई दस बजे होटल से निकले पहले जटाशंकर जाना था। जटाशंकर जहाँ शिव भस्मासुर से डरकर छुपे थे उन्होंने एक मगर का रूप लिया जहाँ चट्टानों के नीचे झरने के बीच 101 शिवलिंग हैं। गाड़ी जटाशंकर से करीब एक किलोमीटर दूर रोक दी। रास्ते में फूल प्रसाद की दुकानें थीं। वहीं एक गाइड मिला सौ रुपये में जटाशंकर के बारे में सभी जानकारी देगा। गाइड भी सभी लोकल लड़के हैं इसलिए मन हो गया। पचमढ़ी मिलिट्री एरिया है इसलिए यहाँ बहुत व्यापार नहीं है सघन वन क्षेत्र है इसलिए कृषि नहीं होती। पर्यटन ही आजीविका का साधन है। जो हमारे लिए 100 रुपये हैं उनकी दिन की कमाई का बड़ा हिस्सा हो सकती है। जब स्थानीय लोग सीमित साधनों के साथ जीते हैं वहाँ उन्हें कुछ मिल जाये ये ध्यान जरूर रखती हूँ। आखिर होटल खाने पर हम हजारों रुपये खर्च करते हैं।
खैर गाइड को लेकर चले उसने कुछ चट्टानों के आकार कुछ बनी अधबनी मूर्तियाँ वगैरह दिखाईं जिनके बारे में न जानते तब भी ठीक ही था। चट्टानों के नीचे की वह गुफा आज भी वैसी ही है हाँ आने वाला रास्ता जरूर बदल सा गया है। अंदर चट्टान के नीचे झुककर जाना पड़ता है वहाँ पानी बहता रहता है। सूरज की रौशनी नहीं पहुँचती इसलिए फिसलन नहीं है।
बाहर आकर गाइड को पैसे देकर फ्री किया ताकि अब हम अपने तरीके से घूम सकें। यह स्थान अद्भुत है यहाँ आराम से दो घंटे बैठा जा सकता है बशर्ते शोर न हो जो असंभव है।
सच कहूँ तो जटाशंकर घूमकर मन थोड़ा खिन्न हुआ। रास्ते के किनारे बहते झरने में गंदा पानी कचरा प्लास्टिक बोतलें पता नहीं कब लोग अपनी जिम्मेदारी समझेंगे। वापस गाड़ी तक पैदल आना अखर रहा था धूप तेज थी रास्ते के किनारे बहुत कम पेड़ थे। ऊँचे पहाड़ हालाँकि खूबसूरत हैं और उन पर घने पेड़ भी हैं जिन्हें देखते हम बढे चले जा रहे थे।
अब जिन स्थानों पर जाना था वे दूसरी ओर थे इसके लिए वापस शहर में जाना था। लेकिन इसके पहले एक जरूरी काम करना था वह है कुछ फोटो खींचना।
हाँ फोटो तो खींच ही रहे थे लेकिन कुछ बहुत बड़े बरगद के पेड़ दोनों दिन दिखाई दिये थे उनके विशाल तने लटकती जड़ें उनके बुजुर्ग होने की गवाही दे रहे थे। पता नहीं क्यों लेकिन ऐसे बड़े पेड़ मुझे बहुत आकर्षित करते हैं मन करता है उन्हें निहारती रहूँ उनकी छाँव में बैठूँ उन्हें महसूस करूँ लेकिन इतना समय कहाँ होता है? बस उन्हें देखते हैं उनके फोटो खींचते हैं मन में कामना करते हैं कि ये सुरक्षित रहें। पता नहीं कितने पेड़ों की फोटो हैं मेरे पास। रास्ते भर बस अरे देखो कितना बड़ा पेड़ कितना सुंदर पेड़ इसका आकार देखो कितना अच्छा छत्र है कितना बड़ा घेरा है बस यही तो देखती हूँ। मन तो होता है ऐसे सभी पेड़ों की फोटो लूँ लेकिन अगर ऐसा करने लगूँ तो दिन भर में दस किलोमीटर भी नहीं चल पाएंगे।
अच्छा ये है कि वर्माजी इस पागलपन में मेरा साथ देते हैं। वैसे सस्ता सौदा है कहीं कोई खरीदी तो नहीं कर रही सिर्फ गाड़ी रोककर पेड़ों की फोटो ही तो ले रही हूँ।
तो अगला पड़ाव उन विशाल बरगदों की फोटो लेना था। उसके बाद जब वापसी हुई तब भी कुछ पेड़ों की फोटो लीं गाड़ी रुकवाकर उतर कर। एक गाँव में एक बहुत विशाल पेड़ दिखा वहाँ एक युवक पूजा कर रहा था उससे पूछा "कितना पुराना पेड़ है ये।"
बोला "पता नहीं होगा सौ साल पुराना"
पेड़ बहुत बड़ा था मैंने कहा "नहीं उससे ज्यादा पुराना है गाँव के बड़े लोगों से पूछा नहीं कभी?"
कहने लगा नहीं पूछा होगा हजार साल पुराना।
सौ से सीधा हजार।
जैसे विधायक सांसद के भत्तों की बात हो रही है।
खैर सबको पेड़ों में रुचि थोड़ी होती है मुझे है और मैं आपको दिखा रही हूँ आप भी देखिये।
जटाशंकर उस दिशा का अकेला दर्शनीय स्थल है अन्य जगहों पर जाने के लिए फिर शहर होकर जाना था। बीच में हमारा होटल दिखा तो हम रूम में चले गए। थोड़ी देर सुस्ताए गर्मी ने हालत खराब कर दी थी।
अभी भी हमारे पास लंबी लिस्ट थी बहुत मन नहीं था कहीं जाने का लेकिन बस आज का दिन ही है अगले दिन वापस निकलना है।
हम निकल पड़े प्रियदर्शिनी पाइंट जाने के लिए। शहर से दूर घने जंगलों के रास्ते ने फिर मन खींच लिया। गाड़ी के शीशे खोल लिये हवा ठंडी थी और भली लग रही थी। सड़क किनारे गाड़ियाँ खड़ी थीं हम भी रुक गये। बाँयी ओर दस पंद्रह फीट की पहाड़ी पर चढ़ कर रास्ता था। आवाजाही के कारण ही शायद वहाँ रास्ते में ज्यादा पेड़ नहीं थे जबकि आसपास घना जंगल था। चारों ओर शांति थी। चलते चलते हम पहाड़ के मुहाने पर पहुँच गये। वह पहाड़ी जो सड़क तरफ दस पन्द्रह फीट ऊँची थी मुहाने पर कई सौ फीट गहरी खाई के किनारे खत्म हो रही थी। किनारे पर रेलिंग लगी थी। वहाँ बंदर थे लेकिन उन्हें खाने को न दिया जाये के बोर्ड लगे थे।
गहरी खाई पूरी तरह हरे भरे पेड़ों से आच्छादित थी। नीचे ही कुछ और छोटे पहाड़ दिख रहे थे और उनके परे दिख रही थी सतपुड़ा की दूसरी सबसे ऊँची चोटी चौरागढ़।
कहते हैं भस्मासुर से बचने के लिए भागते हुए शिव इस पहाड़ पर गये थे और उनका त्रिशूल यहाँ छूट गया था। इस पहाड़ पर शिवमंदिर तक श्रद्धालु पैदल जाते हैं और त्रिशूल चढ़ाते हैं। इसके शीर्ष की चढ़ाई खड़ी है और कठिन भी। हमने यहीं से हाथ जोड़ लिये। बहुत पहले जब पचमढ़ी गये थे तब चौरागढ़ भी चढ़े थे लेकिन इस बार एक तो समय नहीं था दूसरे हिम्मत भी नहीं जुट रही थी।
यहाँ एक ईको पाइंट भी है हमें लगा वह यही पाइंट है। हमने जोर से आवाज लगाई लेकिन न हमारी आवाज चौरागढ़ पहुँची और न वापस आई। तभी किसी ने बताया कि ईको पाइंट आगे है।
आगे बढ़ने के पहले वहीं लगी छोटी सी दुकान पर नींबू पानी पीने चले गये। चालीस बयालीस साल की वह औरत अपने बेटे के साथ दुकान चला रही थी। उससे पूछा "पानी कहाँ से लाते हो?"
"पचमढ़ी से यहाँ तो पानी है नहीं। नीचे नदी है लेकिन वहाँ जाना आसान नहीं है।"
"रोज सारा सामान पचमढ़ी से लाते हो?" मैंने आश्चर्य से पूछा क्योंकि गाड़ी से यहाँ तक आने में हमें 15-20 मिनट लगे थे।
"हाँ पचमढ़ी से लाते हैं।"
"बेटा स्कूल नहीं जाता?"
"नहीं जाता इस साल छोड़ दिया। कहता है बस नहीं जाना।"
"अरे क्यों?" अफसोस तो होता है। शायद वह पढ़ाई की महत्ता नहीं समझ रहा है लेकिन माता-पिता तो समझा सकते हैं।
"अब नहीं पढ़ना तो क्या करें वैसे भी नौकरी तो है नहीं धंधा करना है तो अभी से सीख ले। पचमढ़ी में कोई काम नहीं है नौकरी नहीं है खेतीबाड़ी नहीं है बस ऐसे ही छोटी बड़ी दुकान ही चला सकते हैं।"
उसका लड़का बेजार सा अपने लिए भेल बना रहा था। भेल बनाकर दोने में लेकर वह खाने बैठ गया।
एक टेबल दो तीन कुर्सियाँ स्टूल पानी के डब्बे। थोड़ा आगे एक और दुकान थी जो शायद उसके पति या रिश्तेदार की होगी। पूछना तो चाहती थी कि कितना कमा लेती हो लेकिन नहीं पूछा। पूछना तो यह भी था कि यहाँ दुकान लगाने की परमिशन लेना पड़ती है या नहीं और हाँ तो कितना पैसा लगता है? लेकिन कुछ बातें न पूछना ही ठीक होता है।
नींबू पानी पीकर हम ईको पाइंट की खोज में आगे बढ़ने लगे।
ईको पाइंट जहाँ पहाड़ इतने पास या आमने सामने हों कि आपकी आवाज सामने पहाड़ से टकराकर वापस लौट आये। हम सोच रहे थे कि आवाज चौरागढ़ से टकरा कर वापस आयेगी लेकिन चौरागढ़ बहुत दूर था। फिर ईको पाइंट कहाँ है? हम आगे बढ़ते गये जंगल घना होता गया बहुत शांत जंगल था क्या पता जंगली जानवर भी हों। पहाड़ के किनारे रेलिंग लगी थी जो बता रही थी कि आगे तक जाना हैं और रास्ता बना है तो सुरक्षित भी होगा।
हम चलते गये वहाँ तक जहाँ रास्ता (पगडंडी) खत्म हो गई लेकिन रेलिंग चल रही थी। हम पथरीले रास्ते से नीचे उतरे फिर ऊपर चढे़ और उसी पहाड़ के मुहाने तक आ गये जहाँ से एक दूसरा पहाड़ काफी पास था। चौरागढ़ यहाँ से भी दिख रहा था लेकिन काफी दूर हो गया था। हमने जोर से सीटी बजाई फिर आवाज लगाई पास वाले उस पहाड़ से टकराकर वे वापस आईं। यहाँ से घाटी का विस्तृत नजारा दिख रहा था। मध्यप्रदेश में इतने घने जंगल हैं ये देखकर मन को सुकून मिल रहा था। इस जंगल में कोई रास्ता कोई पगडंडी नहीं दिख रही थी क्या पता हो। क्या कभी कोई इन जंगलों में जाता होगा? मन में प्रश्न उठा। कोई जाता तो शायद ये जंगल इतने घने न होते या शायद वे लोग जाते हैं जो इन वनों का महत्व समझते हैं उन्हें पूजते हैं।
ईको पाइंट प्रियदर्शिनी पाइंट से लौटने का मन तो न था लेकिन यह आज का दूसरा ही पाइंट था अभी तो बहुत कुछ बाकी है इसलिए वापस लौटे। नींबू पानी वाली अब खाली बैठी थी।
अगला पडाव था गुप्त महादेव।
भस्मासुर से बचते हुए शिव जी इस सँकरी सी गुफा में भी छुपे थे। यह इतनी सँकरी है कि इसमें कई जगह आडे होकर चलना पड़ता है। अंदर जमीन पर शिवलिंग है। अगर भीड़ ज्यादा होती है तो कभी-कभी साँस लेने मे दिक्कत होती है। गाड़ी पार्क करके पैदल मंदिर तक पहुँचे। एक तरफ पहाड़ दूसरी तरफ नदी बह रही थी। लाइन लंबी थी सब शांति से अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे हम भी लाइन में लग गये।
यहाँ से आगे चौरागढ का रास्ता जाता है। उस रास्ते पर लोग चले जा रहे थे कुछ नंगे पैर थे कुछ अकेले कुछ समूह में। बगल में घने पेड़ थे उस पर एक जंगली गिलहरी उछलकूद कर रही थी। उसका आकार खरगोश जैसा था बहुत बड़ी लंबी रोयेंदार पूँछ थी रंग गहरा भूरा लाल था। मैंने अमेरिका में बड़ी गिलहरी देखी थीं ये उससे भी बड़ी थी।
आगे लगे हुए लोग अंदाजा लगा रहे थे कि कितने लोगों के बाद हमारा नंबर आयेगा। वहाँ बोर्ड लगा था एक बार में आठ से ज्यादा लोग अंदर न जाएँ। अंदर दो लोगों को अगल बगल से निकलने की जगह नहीं है इसलिए कुछ लोगों ने कहा सिर्फ चार लोग अंदर जाएंगे। हम दोनों के पीछे एक युवा दंपत्ति थे और हम चारों को साथ जाना था।
गुफा के बीच में बिलकुल अंधेरा हो जाता है। पहले इसका फर्श भी उबड खाबड़ था इसलिये मैंने आगे जाना ठीक समझा। लेकिन अब फर्श समतल कर दिया गया है। बमुश्किल एक मिनट में अंदर पहुँचे दर्शन किए और वापस आ गये।
लौटते में रास्ते में बैठे आदिवासियों से सूखे बेर के लब्दो लिए। एक आदमी बड़ा सा कंद लेकर बैठा था। पता चला राम कंद है बहुत ठंडा होता है। एक चपाती बराबर गोल कंद की पतली सी स्लाइस पचास रुपये की। अब दुबारा आकर खाना तो बहुत मँहगा पड़ता इसलिए दो स्लाइस ले लिये। वह बिलकुल बेस्वाद था। न मीठा न खट्टा लेकिन बिना खाए पता कैसे चलता।
यहीं बड़े महादेव का मंदिर भी है। वह थोड़ा आगे था लेकिन अब हम थक गये थे इसलिए पार्किंग में गाड़ी तक जाकर
बड़े महादेव को बाहर से प्रणाम करके हम निकल गये। गर्मी तेज थी उमस काफी थी क्योंकि हम बहुत नीचे उतर गये थे। वापसी में जब पहाड़ चढे तो थोड़ी राहत मिली। अगला पड़ाव हांडी खोह था लेकिन अब वहाँ जाने की हिम्मत नहीं थी।
हांडी खोह दो पहाड़ों के मिलने के बीच बनी गहरी खाई है। यहाँ घने पेड़ हैं और इतनी गहरी है कि इसका तल दिखाई नहीं देता। यहाँ कई औषधीय पेड़ हैं। आदिवासी इस खाई में उतर कर शहद इकठ्ठा करते हैं। उसे छोड़ना अच्छा तो नहीं लगा लेकिन घूमना मतलब भागना दौड़ना ही नहीं होता।
शाम होने को थी हमें राजेन्द्र गिरी जाना था। उम्मीद थी कि आज सनसेट दिख जाये। प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी ने इस पहाड़ पर बरगद का पेड़ लगाया था इसलिए इस जगह का नाम राजेन्द्र गिरी है। वैसे ये आश्चर्य की बात है कि उस समय में राष्ट्रपति के नाम पर किसी स्थान का नाम है।
यहाँ बहुत बड़ा सुंदर बगीचा लगाया गया है जिसके बीच वह बरगद का पेड़ खड़ा है। हम वहाँ पहुँचे तब तक बादल हो गये थे। हवा बहुत ठंडी हो गई थी। यहाँ दो मुहाने हैं और दोनों जगह बहुत भीड़ थी। हम पीछे तरफ थोड़ी कम भीड़ वाले मुहाने पर चले गये।
रेलिंग के पास खड़े होकर लोग फोटो खिंचवा रहे थे। हम उन्हें देखते रहे। बादलों की चादर घनी होती जा रही थी। बीच में हवा तेज होती तो एक उम्मीद सी बँधती कि शायद सूर्यास्त दिख जाये।
एक पेड़ पर बच्चे चढ रहे थे उनके फोटो खींचे जा रहे थे। एक 12-13 साल का बच्चा ऊपर चढ़ गया उसकी मम्मी ने फोटो खींच लिये लेकिन उससे उतरते नहीं बन रहा था। 'ये आजकल के बच्चे' अब मन में ऐसा सोचना अपराध तो नहीं है ना।
जगह खाली हुई तो हमने भी कुछ फोटो वोटो खींचे। मन तो था थोड़ा ईश्टाल मारें लेकिन अंदर की झिझक ने ऐसा करने नहीं दिया। थोड़ी कोशिश की वो फोटो में देखिए।
हम फिर वहीं बैठ गये। वहाँ एक कपल सबके हटने का इंतजार कर रहा था। दुबली पतली लड़की स्लीवलेस गाउन में थी लड़का पैंट शर्ट टाई में। पता नहीं लोगों को कब समझ आयेगा कि लड़कियों को भी ठंड लगती है या ये बात कहने की हिम्मत लडकियाँ कब जुटा पाएंगी।
हम उनका फोटो शूट देखते रहे। मेरा ध्यान लड़की के चेहरे पर था जहाँ नपी तुली नकली मुस्कान थी। वह बस निर्देशों का पालन कर रही थी। लड़का भी बड़ी शांति से फोटो खिंचवा रहा था। न जाने क्यों शादी करने वाला उत्साह नहीं दिखा मुझे उनमें। ऐसा लगा जैसे बस एक रस्म निभा रहे हैं।
खैर ये मेरा वहम भी हो सकता है।
अंधेरा होने लगा था लोग जाने लगे थे। आंध्रप्रदेश से स्कूल के बच्चों का एक ग्रुप आया था वे पैदल ही वापस जा रहे थे।। वर्मा जी गाड़ी लेने गये तब तक मैंने सौ मीटर की वाक कर ली। हम जिस रास्ते से आये थे उसके अलावा एक और रास्ता था जहाँ से गाड़ियाँ आ जा रही थीं। हमने भी वही रास्ता पकड़ा। बच्चे उसी रास्ते पर थे। कहीं आसपास कोई तेंदुआ या भालू हुआ तो! बस ऐसे ही विचार आया। हालाँकि बोलने चलने की आवाज आ रही थी तो ऐसी संभावना कम थी।
ये छोटा रास्ता था हम जल्दी ही शहर पहुँच गये। रास्ते में झील पड़ी मुझे याद नहीं है पिछली बार हम कभी इस झील पर गये थे। वहाँ बोटिंग और वाटर स्पोर्ट्स थे। हमने गाड़ी धीमी की लेकिन वहाँ इस समय भी बहुत भीड़ थी।
अरे नहीं अब और कुछ नहीं बस आराम करेंगे अब। हम वापस होटल आ गये।
शाम को होटल आये तो थक चुके थे। आज का दिन अच्छा रहा। एक दो पाइंट छूटे लेकिन सब कुछ कहाँ देख पाते हैं। हमने जंगल घूमा जो बहुत सुंदर है जंगल की शांति घने पेड़ उनसे गुजरती हवा। ऐसी अनछुई प्रकृति के सानिध्य में पूरा दिन बिताया जो शहर में नहीं दिखती। सबसे अच्छी बात यह थी कि बहुत ज्यादा भीड़ या शोर नहीं मिला।
होटल आकर फ्रेश हुए और खाना खाने डाइनिंग हाॅल में आ गये। आज वहाँ अधिकतर नये लोग थे। हमारे साथ सफारी पर गये कपल जा चुके थे। आज माहौल अलग सा था शायद लोगों का औरा बदल गया था। एक विदेशी लड़की भी वहाँ थी वह फोन पर बात कर रही थी।
अगले दिन सुबह नाश्ता करके हम निकल गये। एक मन हुआ पांडव गुफा तरफ जाकर नर्सरी से कुछ पौधे ले लें लेकिन घंटा भर टूट जाता इसलिए सीधे निकले।
आते समय शाम होने लगी थी इसलिए जंगल अलग दिख रहा था। अब दिन में जंगल अलग दिख रहा था। हमने गाड़ी की स्पीड धीमी रखी। रास्ते में कुछ बहुत बुजुर्ग पेड़ दिखे कुछ के फोटो लिये कुछ को बस आँखों में भर लिया।
एक इच्छा थी देनवा नदी के दर्शन की। पहले इसके लिए सड़क किनारे व्यू पाइंट बना था लेकिन अब सड़क अच्छी स्थिति में है गाड़ियों की गति बढ़ गई है ऐसे में रास्ते में रुकी गाड़ी गंभीर दुर्घटना का कारण बन सकती हैं इसलिए उस व्यू पाइंट को खत्म कर दिया। स्मृति में वह स्थान था जिसे पहचान कर हम रुक गये। नीचे लगभग छह-सात सौ फीट गहरी खाई में बहती देनवा नदी को देखा। नीचे उसका पाट काफी चौड़ा है बारिश के कारण पानी मटमैला था।
तभी बाइक पर एक आदिवासी जोड़ा रुका और खाई में देखने की कोशिश करने लगा। उसके पीछे से आती बस ने झटके से साइड होकर उसे बचाया। वह बाइक हमारे पास आकर रुकी। मैंने उससे कहा किनारे हो जाओ ये सफेद लाइन से बाहर गाड़ी रोको अभी वह बस तुम्हें टक्कर मार देती। उनका छोटा बच्चा सो रहा था इसलिए वे नीचे नहीं उतर पा रहे थे। मैंने उसका मोबाइल लेकर नीचे घाटी का फोटो खींचकर उसे दे दिया।
इसके आगे रास्ता मैदान की ओर उतर रहा था। पचमढ़ी सतपुड़ा की रानी पीछे छूटती जा रही थी लेकिन इस बार मन में दिमाग में वह और ज्यादा सघनता के साथ बस गई थी। हम वापस जा रहे थे फिर आने के लिए फिर छोड़ दिये गये कुछ और स्थान देखने के लिए। इस तसल्ली के साथ कि कहीं हमारे बच्चों को जीवन देने के लिए जंगल बाकी हैं।
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