Monday, December 1, 2014

अलमस्त

 
घर से निकलते हुए ठिठक कर वह सामने से जाते उस लड़के को ध्यान से देखने लगा। कान में हेड फोन लगाये सीटी बजाता वह लापरवाही से जेब में हाथ डाले टहलता हुआ लगभग रोज़ ही निकलता था और वह रोज़ ही उसे एक नज़र देख ही लेता था। वह खुद भी तो ऐसा ही था चंद सालों पहले अलमस्त सा। अब वह उसे देख कर उन दिनों की याद कर एक उसाँस भर कर रह जाता है। पढाई पूरी होते ही एक बड़ी कंपनी के लाखों के पैकेज की नौकरी के एवज़ में उसने वे दिन कहीं खो जो दिए थे। 
कविता वर्मा 

अपने सारथी हम खुद

  अपने सारथी हम खुद  अगले दिन सुबह उठे तो कहीं जाने की हड़बड़ी नहीं थी। आज हमें उन्हीं जगह पर जाना था जहाँ अपनी गाड़ी से जाया जा सकता था। कि...